महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 290 श्लोक 14-26
नवत्यधिकद्विशततम (290) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मरकर गये हुए प्राणी पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों को सदैव याद नहीं रख सकते । किंतु जब किसी पूर्वकृत कर्म का फल प्राप्त होता है तब वे ही लोग सदा (मन,वाणी,नेत्र और क्रियाद्वारा किये हुए¬) चार प्रकार के कर्मों का स्मरण करते हैं- अर्थात यह कहते हैं कि मैंने पूर्व जन्म में कोई ऐसा कर्म किया होगा जिसका फल इस रूप में प्राप्त हुआ है । तात ! नास्तिक लोग जो यह कहते हैं कि लोकयात्रा के निर्वाह और मन की शान्ति के लिये वेदोक्त शब्दों को प्रमाण माना गया है; अर्थात वेदों में जो कर्म करने का विधान है, वह तो असमर्थ पुरूषों के जीविकानिर्वाह के लिये है और जो पूर्वजन्म के किये हुए कर्म की चर्चा आयी है वह सुखी मनुष्यों के मन को धीरज बँधाने के लिये है, परंतु यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि पतञ्जली आदि ज्ञानवृद्ध पुरूषों ने ऐसा उपदेश नहीं किया है (पतञ्जली ने 'तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:' इस सूत्र के द्वारा जाति (जन्म), आयु और सुख-दु:ख रूप भोग को पूर्वकृत कर्म का फल बताया है ) । मनुष्य नेत्र, मन, वाणी और क्रिया के द्वारा चार प्रकार के कर्म करता है और जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल पाता है । राजन ! मनुष्य कर्म के फलरूप से कभी केवल सुख, कभी सुख्-दुख दोनों को एक साथ प्राप्त करता है। पुण्य या पाप कोई भी कर्म क्यों न हो, फल भोगे बिना उसका नाश नहीं होता । तात ! संसार-सागर में डूबते हुए मनुष्य का पुण्यकर्म कभी-कभी तब तक स्थिर-जैसा रहता है जबतक कि दु:ख से उसका छुटकारा नहीं हो जाता। तदनन्तर दु:ख का भोग समाप्त कर लेने पर जीव अपने पुण्य कर्म के फल का उपभोग आरम्भ करता है। जब पुण्य का भी क्षय हो जाता है तब फिर वह पाप का फल भोगता है। नरेश्वर ! इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो । इन्द्रियसंयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसन का अभाव तथा दक्षता - ये सब सुख देने वाले हैं । विद्वान पुरूष को जीवनपर्यन्त पाप या पुण्य में भी आसक्त न होकर अपने मन को परमात्मा के ध्यान में लगाने का प्रयत्न करना चाहिये । जीव दूसरे के किये हुए शुभ अथवा अशुभ कर्म को नहीं भोगता, वह स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है । विवेकी पुरूष सुख और दु:ख को अपने भीतर विलीन करके अन्य मार्ग से अर्थात मोक्ष प्राप्ति के मार्गद्वारा चलता है। जो स्त्री, पुत्र और धन आदि में आसक्त हैं, वे सब संसारी जीव उससे भिन्न दूसरे ही मार्ग पर चलते हैं; अत: जन्मते और मरते रहते हैं । मनुष्य दूसरे के जिस कर्म की निन्दा करे, उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरे की निन्दा करता है; किंतु स्वयं उसी निन्द्य कर्म में लगा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है । राजन ! डरपोक क्षत्रिय, (भक्ष्याभक्ष्य का विचार न करके) सब कुछ खाने वाला ब्राह्मण, धनोपार्जन की चेष्टा से रहित या अकर्मण्य वैश्य, आलसी शूद्र, उत्तम गुणों से रहित विद्वान, सदाचार का पालन न करने वाला कुलीन पुरूष, दुराचारिणी स्त्री, विषयासक्त योगी, केवल अपने लिये भोजन बनाने वाला मनुष्य, मूर्ख वक्ता, राजा से रहित राष्ट्र तथा अजितेन्द्रिय होकर प्रजा के प्रति स्नेह न रखने वाला राजा - ये सब के सब शोक के योग्य है, अर्थात निन्दनीय हैं ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीताविषयक दो सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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