महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 303 श्लोक 50-54
त्रयधिकत्रिशततम (303) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
किंतु यह जीव वास्तव में इन्द्रियों से रहित है तो भी यह मानता है कि मैं ही ये सब कर्म करता हूँ और मुझमें ही सब इन्द्रियां हैं । इस प्रकार यह छिद्रशून्य होकर भी अपने को छिद्रयुक्त मानता है । वह लिंग (सूक्ष्म) शरीर से हीन होने पर भी अपने को उससे युक्त मानता है। कालधर्म (मृत्यु) से रहित होकर भी अपने को कालधर्मी (मरणशील) समझता है। सत्व से भिन्न होकर भी अपने को सत्वरूप मानता है तथा महाभूतादि तत्व से रहित होकर भी अपने आप को तत्वस्वरूप समझता है । वह मृत्यु से सर्वथा रहित है तो भी अपने को मृत्युग्रस्त मानता है। अचर होने पर भी अपने को चलने-फिरने वाला मानता है। क्षेत्र से भिन्न होने पर भी अपने को क्षेत्र मानता है। सृष्टि से उसका कोई संबध नही होने पर भी सृष्टि को अपनी ही समझता है । वह कभी तप नहीं करता तो भी अपने को तपस्वी मानता है। कहीं गमन नहीं करता तो भी अपने को आने-लाने वाला समझता है। संसाररहित होकर भी अपने को संसारी और निर्भय होकर भी अपने को भयभीत मानता है। यद्यपि वह अक्षर (अविनाशी) है तो भी अपने को क्षर (नाशवान) समझता है तथा बुद्धि से परे होने पर भी बुद्धिमता का अभिमान रखता है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में वसिष्ठ और करालजनक का संवाद विषयक तीन सो तीनवां अध्याय पूरा हुआ ।
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