महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 46-59

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विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 46-59 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्‍य रूप उत्‍तम शरीर में स्थित हुए प्राणी प्रभुत्‍व रखते हुए भी केवल ज्ञान के ही बल से यहाँ समस्‍त पापों से मुक्‍त हो जाते हैं।मेरी तो यह धारणा है कि गेरूआ वस्‍त्र पहनना, मस्‍तक मुड़ा लेना तथा त्रिदण्‍ड और कमण्‍डलू धारण करना—से सब उत्‍कृष्‍ट संन्‍यास मार्ग का परिचय देने वाले चिह्न मात्र हैं । इनके द्वारा मोक्ष की सिद्धि नहीं होती। यदि इन चिह्नों के रहते हुए भी यहाँ दु:ख से सर्वथा मोक्ष पाने के लिये एकमात्र ज्ञान ही उपाय है तो जितने भी चिह्न धारण किये जाते हैं, वे सब निरर्थक हैं । अथवा यदि कहें कि त्रिदण्‍ड और गैरिक वस्‍त्र आदि धारण करने से कुछ सुविधा प्राप्‍त होती है और कष्‍ट कम होता है, इसलिये संन्‍यासियों ने उन चिह्नों को धारण करने का विचार किया है तो छत्र आदि धारण करने में भी इसी सामान्‍य प्रयोजन की और क्‍यों ने दृष्टि रखी जाय ? न तो अकिंचनता (दरिद्रता)-में मोक्ष है और न किंचनता (आवश्‍यक वस्‍तुओं से सम्‍पन्‍न होने)-में बन्‍धन ही है । धन और निर्धनता दोनों ही अवस्‍थाओं में ज्ञान से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिये धर्म,अर्थ,काम तथा राज्‍यपरिग्रह —इन बन्‍धन के स्‍थानों में रहते हुए भी मुझे आप बन्‍धनरहित (जीवन्‍मुक्‍त) पद पर प्रतिष्ठित समझें। मैंने मोक्षरूपी पत्‍थर पर रगड़कर तेज किये हुए त्‍याग-वैराग्‍यरूपी तलवार से राज्‍य और ऐश्‍वर्य रूपी पाश को तथा स्‍नेह के आश्रयभूत स्‍त्री-पुत्र आदि के ममत्‍वरूपी बन्‍धन को काट डाला है। संन्‍यासिनी ! इस प्रकार मैं जीवन्‍मुक्‍त हूँ । आप में योग का प्रभाव देखकर यद्यपि आपके प्रति मेरी आस्‍था और आदर-बुद्धि हो गयी है तथापि मैं आपके इस रूप और सौन्‍दर्य को योगसाधना के योग्‍य नहीं मानता, अत: इस विषय में मैं जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस वचन को आप सुनिये। सुकुमारता, सौन्‍दर्य, मनोहर शरीर तथा यौवनावस्‍था—ये सारी वस्‍तुएँ योग के विरूद्ध हैं; फिर भी आप में इन सब गुणों के साथ-साथ योग और नियम भी हैं ही, यह कैसे सम्‍भव हुआ ? यही मेरे मन में संदेह है। यह जो त्रिदण्‍ड धारणरूप चिह्न है, उसके अनुरूप आपकी कोई चेष्‍टा नहीं है । यह मुक्‍त है या नहीं, इसकी परीक्षा लेने के लिये आपने मेरे शरीर को अभिभूत कर दिया है—उस पर बलात् अधिकार जमा लिया है। मनुष्‍य योगयुक्‍त होकर भी यदि कामभोग में आसक्‍त हो जाय तो उसका त्रिदण्‍ड धारण करना अनुचित एवं व्‍यर्थ है । आप अपने इस बर्ताव द्वारा संन्‍यास-आश्रम के नियम की रक्षा नहीं कर रही हैं । यदि अपने स्‍वरूप को छिपाने के लिये आपने ऐसा किया हो तो जीवन्‍मुक्‍त पुरूष के लिये आत्‍मगोपन आवश्‍यक नहीं है। आपने स्‍वभावत: सोच-समझकर मेरे पूर्व-शरीर का आश्रय लेने की चेष्‍टा की है, अत: मेरे पक्ष का आश्रय लेने-मेरे शरीर में प्रवेश करने के कारण आपसे जो व्‍यतिक्रम बन गया है, उसे बताता हूँ, सुनिये। आपने किस कारण से मेरे राज्‍य अथवा नगर में प्रवेश किया है अथवा किसके संकेत से आप मेरे हृदय में घुस आयी हैं ? वर्णो मे श्रेष्‍ठ ब्राह्माणों की जो कन्‍याएँ उन सब में आप प्रमुख हैं । आप ब्राह्माणी हैं और मैं क्षत्रिय हूँ; अत: हम दोनों का एकत्र संयोग होना कदापि उचित नहीं है; इसलिये आप वर्णसंकर नामक दोषका उत्‍पादन न कीजिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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