महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 75-91

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विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 75-91 का हिन्दी अनुवाद

अत: संन्‍यासिनि ! आपको अपनी जाति, शास्‍त्र ज्ञान, चरित्र, अभिप्राय, स्‍वभाव एवं यहाँ आगमन का प्रयोजन भी यथार्थरूप से बताना उचित है। भीष्‍मजी कहते—युधिष्ठिर ! राजा जनक ने इन दु:खजनक, अयोग्‍य और असंगत वचनों द्वारा उसका बड़ा तिरस्‍कार किया, तो भी सुलभा अपने मन में तनिक भी विचलित नहीं हुई। जब राजा की बात समाप्‍त हो गयी, तब परम सुन्‍दरी सुलभा ने अत्‍यन्‍त मधुर वचनों में भाषण देना आरम्‍भ किया। सुलभा बोली—राजन् ! वाणी और बुद्धि को दूषित करने वाले जो नौ-नौ दोष हैं, उनसे रहित, अठारह गुणों से सम्‍पन्‍न और युक्तिसंगत अर्थ से युक्‍त पद समूह को वाक्‍य कहते हैं । उस वाक्‍य में सौक्ष्‍म्‍य, सांख्‍य क्रम, निर्णय और प्रयोजन-ये पाँच प्रकार के अर्थ रहने चाहिये। ये जो सौक्ष्‍म्‍य यदि अर्थ हैं, ये पद, वाक्‍य, पदार्थ और वाक्‍यार्थरूप से खोलकर बताये जा रहे हैं । आप इनमें से एक-एकका अलग-अलग लक्षण सुनिये। जहाँ अनेक भिन्‍न-भिन्‍न ज्ञेय (अर्थ) उपस्थित हों और ‘यह घट है, यह पट है’ इस प्रकार वस्‍तुओं का पृथक्-पृथक् ज्ञान होता हो, ऐसे स्‍थलों में यथार्थ निर्णय करने वाली जो बुद्धि है, उसी का नाम सौक्ष्‍म्‍य है। जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्‍ट मानकर उसके दोषों और गुणों की विभागपूर्वक गणना की जाती है, उस अर्थ को सांख्‍य अथवा सांख्‍य समझना चाहिये। परिगणित गुणों और दोषों में से अमुक गुण या दोष पहले कहना चाहिये और अमुक को पीछे रहना अभीष्‍ट है। इस प्रकार जो पूर्वापर के क्रम का विचार होता है, उसका नाम क्रम है और जिस वाक्‍य में ऐसा क्रम हो, उस वाक्‍य को वाक्‍य वेत्‍ता विद्वान् क्रमयुक्‍त कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में किसी एक का विशेष रूप से प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञा करके प्रवचन के अन्‍त में ‘यही वह अभीष्‍ट विषय है’ ऐसा कहकर जो सिद्धान्‍त स्थिर किया जाता है, उसी का नाम निर्णय है। नरेश्‍वर ! इच्‍छा अथवा द्वेष से उत्‍पन्‍न हुए दु:खों के द्वारा जहाँ किसी एक प्रकार के दु:ख की प्रधानता हो जाय, जो वृत्ति उदय होती है, उसी को प्रयोजन कहते हैं। जनेश्‍वर ! जिस वाक्‍य में पूर्वोक्‍त सौक्ष्‍म्‍य आदि गुण एक अर्थ में सम्मिलित हों, मेरे वैसे ही वाक्‍य को आप श्रवण करें। मैं ऐसा वाक्‍य बोलूँगी, जो सार्थक होगा । उसमें अर्थभेद नहीं होगा। वह न्‍यायमुक्‍त होगा । उसमें आवश्‍यकता से अधिक, कर्णकटु एवं संदेह-जनक पद नहीं होंगे । इस प्रकार मैं परम उत्‍तम वाक्‍य बोलूँगी। मेरे इस वचन में गुरू एवं निष्‍ठुर अक्षरों का संयोग नहीं होगा; कोमलकान्‍त सुकुमार पदावली होगी । वह पराड्मुख व्‍यक्तियों के लियें सुखद नहीं होगा । वह न तो झूठ होगा न धर्म, अर्थ और काम के विरूद्ध और संस्‍कार शून्‍य ही होगा। मेरे उस वाक्‍य में न्‍यून पदत्‍व नामक दोष नहीं रहेगा, कष्‍टकर शब्‍दों का प्रयोग नहीं होगा, उसका क्रमरहित उच्‍चारण नहीं होगा । उसमें दूसरे पदों के अध्‍याहार और लक्षण की आवश्‍यकता नहीं होगी । यह वाक्‍य निष्‍प्रयोजन और युक्तिशून्‍य भी नहीं होगा। मैं काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्‍य, अनार्यता, लज्‍जा, दया तथा अभिमान से किसी तरह कोई बात नहीं बोलूँगी। नरेश्‍वर ! बोलने की इच्‍छा होने पर जब वक्‍ता, श्रोता और वाक्‍य—तीनों अविकल भाव से सम-स्थिति में आ जाते हैं, तब वक्‍ता का कहा हुआ अर्थ प्रकाशित होता है (श्रोता के समझ में आ जाता है)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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