महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-51
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
वर्ण, अक्षर और पदों के अर्थ का, संधि और लिंग का तथा नाम और धातु का विवेक होने के लिये पूर्वकाल में व्याकरण शास्त्र की रचना हुई है। यूप, वेदी और यज्ञ का स्वरूप जानने के लिये, प्रोक्षण और श्रपण (चरु पकाना) आदि की इतिकर्तव्यता को समझने के लिये तथा ज्ञान यज्ञ और देवता के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करने के लिये शिक्षा नामक वेदांग की रचना हुई है। यज्ञ के पात्रों की शुद्धि, यज्ञ सम्बन्धी सामग्रियों के संग्रह तथा समस्त यज्ञों के वैकल्पिक विधानों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये पूर्वकाल में कल्पशास्त्र का निर्माण किया गया है। सम्पूर्ण वेदों में प्रयुक्त नाम, धातु और विकल्पों के तात्विक अर्थ का निश्चय करने के लिये ऋषियों ने निरुक्त की रचना की है। यज्ञ की वेदी बनाने तथा अन्य सामग्रियों को धारण करने के लिये ब्रह्माजी ने पृथ्वी की सृष्टि की है। समिधा और यूप बनाने के लिये वनस्पतियों की रचना की है। गौएं यज्ञ और दक्षिणा के लिये उत्पन्न हुई हैं, क्योंकि गोघृत और गोदक्षिणा के बिना यज्ञ सम्पन्न नहीं होता । सुवर्ण और चांदी- ये यज्ञ के पात्र और कलश बनाने का काम लेने के लिये पैदा हुए हैं। कुशों की उत्पत्ति हवनकुण्ड के चारों ओर फैलाने और राक्षसो से यज्ञ की रक्षा करने के लिये हुई है । पूजन करने के लिये ब्राह्मणों को, नक्षत्रों को और स्वर्ग के देवताओं को उत्पन्न किया गया है। सबकी रक्षा के लिये क्षत्रिय-जाति की सृष्टि की गयी है । कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य आदि जीविका का साधन जुटाने के लिये वैश्यों की उत्पत्ति हुई है और तीनों वर्णों की सेवा के लिये ब्रह्माजी ने शूद्रों को उत्पन्न किया है। जो द्विज विधिपूर्वक अग्निहोत्र का सेवन करते हैं, उनके द्वारा दान, होम, यज्ञ और अध्यापन- ये समस्त कर्म पूर्ण हो जाते हैं। राजन् ! इसी प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा जो यज्ञ करने, बगीचे लगाने और कुएं खुदवाने आदि के कार्य होते हैं, उन सबके पुण्य को लेकर मैं सूयमण्डल में स्थापित कर देता हूं। मेरे द्वारा आदित्य में स्थापित किये हुए संसार के पुण्य और अग्निहोत्रियों के सुकृत को सहस्त्रों किरणों वाले सूर्यदेव धारण किये रहते हैं। इसलिये राजन् जो द्विज परदेश में न रहते हों और ऊर्ध्वगति को प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें प्रतिदिन विधिपूर्वक अग्निहोत्र करना चाहिये। महाराज युधिष्ठिर ! अग्निहोत्र को अपने आत्मा के समान समझकर कभी भी उसका अपमान या एक क्षण के लिये भी त्याग नहीं करना चाहिये। जो बाल्यकाल से ही अग्निहोत्र का सेवन करते और शूद्र के अन्न से सदा दूर रहते हैं, जो क्रोध और लोभ से रहित हैं, जो प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके जितेन्द्रीय भाव से विधिवत अग्निहोत्र का अनुष्ठान करते हैं, सदा अतिथि की सेवा में लगे रहते हैं तथा शान्त भाव से रहकर दोनों समय मेरे परायण होकर मेरा ध्यान करते हैं, वे सूर्य मण्डल को भेदकर मेरे परम धाम को प्राप्त होते हैं, जहां से पुन: इस संसार में नहीं लौटना पड़ता। इस संसार में कुछ मूर्ख मनुष्य श्रुति पर दोषारोपण करते हुए उसकी निन्दा करते हैं तथा उसे प्रमाणभूत नहीं मानते, ऐसे लोगों की बड़ी दुर्गति होती है। परंतु जो द्विज नित्य आस्तिक्य बुद्धि से युक्त होकर वेदों और इतिहासों को प्रामाणिक मानते हैं, वे देवताओं का सायुज्य प्राप्त करते हैं।
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