महाभारत आदि पर्व अध्याय 212 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०२, ६ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वादशाधिकशततम (212) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के द्वारा ब्राह्मण के गोधन की रक्षा के लिये नियम भंग और वन की ओर प्रस्‍थान

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार नियम बनाकर पाण्‍डव लोग वहां रहने लगे। वे अपने अस्‍त्र-शस्‍त्रों के प्रताप से दूसरे राजाओं को अधीन करते रहते थे। कृष्‍णा मनुष्‍यों में सिंह के समान वीर और अमित तेजस्‍वी उन पांचों पाण्‍डवों की आज्ञा के अधीन रहती थी। पाण्‍डव द्रौपदी के साथ और द्रौपदी उन पांचों वीर पतियों के साथ ठीक उसी तरह अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न रहती थी जैसे नागों के रहने से भोगवती पुरी परम शोभायुक्‍त होती है। महात्‍मा पाण्‍डवों के धर्मानुसार बर्ताव करने पर समस्‍त कुरुवंशी निर्दोष एवं सुखी रहकर निरन्‍तर उन्‍नति करने लगे। महाराज ! तदनन्‍तर दीर्घकाल के पश्‍चात् एक दिन कुछ चोरों ने किसी ब्राह्मण की गौएं चुरा ली। अपने गो धन का अपहरण होता देख ब्राह्मण अत्‍यन्‍त क्रुद्ध हो उठा और खाण्‍डवप्रस्‍थ में आकर उसने उच्‍चस्‍वर से पाण्‍डवों को पुकारा। ‘पाण्‍डवों ! हमारे गांव से कुछ नीच, क्रूर और पापात्‍मा चोर जबरदस्‍ती गो धन चुराकर लिये जा रहे हैं। उसकी रक्षा के लिये दौड़ी । ‘आज एक शान्‍त स्‍वभाव ब्राह्मण का हविष्‍य कौए लौटकर खा रहे है। नीच सि‍यार सिंह की सूनी गुफा को रौंद रहा है। ‘जो राजा प्रजा की आय का छटा भाग करके रुपमें वसूल करता हैं, किंतु प्रजा की रक्षा की कोई व्‍यवस्‍था नहीं करता, उसे सम्‍पूर्ण लोकों में पूर्ण पापाचारी कहा गया है। ‘मुझ ब्राह्मण का धन चोर लिये जा रहे हैं, मेरे गौ के न रहने पर दुग्‍ध आदि हविष्‍य के अभाव से धर्म और अर्थ का लोप हो रहा है तथा मैं वहां आकर रो रहा हूं।पाण्‍डवो ! (चोरों को दण्‍ड देने के लिये) अस्‍त्र धारण करो’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! वह ब्राह्मण निकट आकर बहुत रो रहा था। पाण्‍डु पुत्र कुन्‍ती नन्‍दन धनंजय ने उसकी कही हुई सारी बातें सुनी और सुनकर उन महाबाहु ने उस ब्राह्मण से कहा-‘डरो मत’। महात्‍मा पाण्‍डवों कके अस्‍त्र-शस्‍त्र जहां रक्‍खे गये थे, वहां धर्मराज युधिष्ठिर कृष्‍णा के साथ एकान्‍त में बैठे थे। अत: पाण्‍डुपुत्र अर्जुन न तो घर के भीतर प्रवेश कर सकते थे। और न खाली हाथ चोरों का पीछा कर सकते थे। इधर उस आते ब्राह्मण की बातें उन्‍हें बार-बार शस्‍त्र ले आने को प्रेरित कर रही थी। जब वह अधिक रोने-चिल्‍लाने लगा, तब अर्जुन ने दुखी होकर सोचा- ‘इस तपस्‍वी ब्राह्मण के गो धन का अपहरण हो रहा है; अत: ऐसे समय में इसके आंसू पोंछना मेरा कर्तव्‍य है। यही मेरा निश्‍चय है। ‘यदि मैं राजद्वार पर रोते हुए इस ब्राह्मण की रक्षा आज नहीं करुंगा, तो महाराज युधिष्ठिर को उपेक्षा जनित महान् अधर्म का भागी होना पड़ेगा। ‘इसके सिवा लोक में यह बात फैल जायगी कि हम सब लोग किसी आर्तकी रक्षा रुप धर्म के पालन में श्रद्धा नहीं रखते। साथ ही हमें अधर्म भी प्राप्‍त होगा।‘यदि राजा का अनादर करके मैं घर के भीतर चला जाउं, तो महाराज अजातशत्रु के प्रति मेरी प्रतिज्ञा मिथ्‍या होगी।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।