महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 21-39

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त्रिपञ्चाशत्त (53) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिपञ्चाशत्त अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

यह सब सामग्री च्यवन मुनि के आगे परोस कर रखी गयी। मुनि वह सब लेकर उसको तथा शैय्या तथा आसन को भी सुन्दर वस्त्रों से ढक दिया। इसके बाद भृगुनन्दन च्यवन ने भोजन-सामग्री के साथ उन वस्त्रों में भी आग लगा दी।परंतु उन परम बुद्धिमान दम्पति न उन पर क्रोध नहीं प्रकट किया। उन दोनों के देखते-ही-देखते वे मुनि फिर अन्तर्धान हो गये । वे श्रीमान राजर्षि अपनी स्त्री के साथ उसी तरह वहां रात भर चुपचाप खड़े रह गये; किंतु उनके मन में क्रोध का आवेश नहीं हुआ । प्रतिदिन भांति-भांति का भोजन तैयार करके राजभवन में मुनि के लिये परोसा जाता, अच्छे-अच्छे पलंग विछाये जाते तथा स्नान के लिये बहुत-से पात्र रखे जाते । अनेक प्रकार के वस्त्र ला-ला कर उनकी सेवा में समर्पित किये किये जाते थे। जब ब्रह्मर्षि च्यवन मुनि इन सब कार्यो में कोई छिद्र न देख सके, तब फिर राजा कुशिक से बोले-‘ तुम स्त्री सहित रथ में जुत जाओ और मैं जहां कहूं, वहां मुझे शीघ्र ले चलो’।तब राजा ने निःशंक होकर उन तपोधन से कहा- ‘बहुत अच्छा, भगवन। क्रीड़ा का रथ तैयार किया जाये या युद्व के उपयोग में आने वाला रथ?’ हर्ष में भरे हुए राजा के इस प्रकार पूछने पर च्यवन मुनि को बड़ी प्रसन्ना हुई। उन्होंने शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले उन नरेश से कहा- ‘राजन। तुम्हारा जो युद्वोपयोगी रथ है, उसी को शीघ्र तैयार करो। उसमें नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रखे रहें। पताका, शक्ति और सुवर्णदण्ड विद्यमान हों । ‘उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियों के मधुर शब्द सब ओर फैलते रहें। वह रथ वन्दनवारों से सजाया गया हो। उसके ऊपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण जड़ा हुआ हो तथा उसमें अच्छे-अच्छे सैकड़ों बाण रखे गये हों’ । तब राजा ‘जो आज्ञा’ कहकर गये और एक विशाल रथ तैयार करके ले आये। उसमें बायीं ओर का बोझ ढोने के लिये रानी को लगाकर स्वयं वे दाहिनी ओर जुट गये । उस रथ पर उन्होंने एक ऐसा चाबुक भी रख दिया, जिसमें आगे की ओर तीन दण्ड थे और जिसका अग्रभाग सूई की नोंक के समान तीखा था। यह सब सामान प्रस्तुत करके राजा ने पूछा- ‘भगवान। भृगुनन्दन। बताइये, यह रथ कहां जाये? ब्रह्मर्षें। आप जहां कहेंगे, वहीं आपका रथ चलेगा’। राजा के ऐसा पूछने पर भगवान च्यवन मुनि ने उनके कहा- यहां से तुम बहुत धीरे-धीरे एक-एक कदम उठाकर चलो। यह ध्यान रखो कि मुझे कष्‍ट न हो पाये। तुम दोनों की मेरी मर्जी के अनुसार चलना होगा। तुम लोग इस प्रकार रथ को ले चलो जिससे मुझे अधिक आराम मिले और सब लोग देखें। रास्ते से किसी राहगीर को हटाना नहीं चाहिये, मैं उन सब को धन दूंगा। मार्ग में जो ब्राह्माण मुझझे जिस वस्तु की प्रार्थना करेंगे मैं उनको वही वस्तु प्रदान करूंगा । मैं सबको उनकी इच्छा के अनुसार धन और रत्न बाटूंगा। अतः इन सब के लिये पूरा-पूरा प्रबंध कर लो। पृथ्वीनाथ। इसके लिये मन में कोई विचार न करो । मुनि का यह वचन सुनकर राजा ने अपने सेवकों से कहा- ‘ये मुनि जिस-जिस वस्तु के लिये आज्ञा दें, वह सब निःशंक होकर देना’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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