महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-20

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चतु:पञ्चाशत्तम (54) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतु:पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि च्यवन के प्रभाव से राज कुशिक और उनकी रानीको अनेक आश्‍चर्यमय दृश्‍यों का दर्शन एवं च्‍यवन मुनि का प्रसन्‍न होकर राजा को वर मांगने के लिये कहना भीष्मजी कहते हैं- राजन।तत्पश्‍चात् रात्रि व्यतीत होने पर महामना राजा कुशिक जागे और पूर्वान्हकाल के नैत्यिक नियमों से निवृत होकर अपनी रानी के साथ उस तपोवन की ओर चल दिये। वहां पहुंचकर नरेश ने एक सुन्दर महल देखा जो सारा-का-सारा सोने का बना हुआ था। उसमें मणियों के हजारों खम्भे लगे हुए थे और वह अपनी शोभा से गन्दर्भ नगर के समान जान पड़ता था। भारत।उस समय राजा कुशिक ने शिल्पियों के अभिप्राय के अनुसार निर्मित और भी बहुत-से दिव्य पदार्थ देखे। कहीं चांदी के शिखरों से सुशोभित पर्वत, कहीं कमलों से भरे सरोवर, कहीं भांति-भांति की चित्रशालाऐं तथा तोरण शोभा पा रहे थे। भूमि से कहीं सोने से मढा हुआ पक्का फर्स और कहीं हरी-हरी घास की बहार थी। अमराईयों में बौर लगे थे। जहां-तहां केतक, उद्वालक, अशोक, कुन्द, अतिमुक्तक, चम्पा, तिलक, कटहल, बेंत और कनेर आदि के सुन्दर वृक्ष खिले हुए थे। राजा और रानी ने उन सब को देखा।राजा ने विभिन्न स्थानों में निर्मित श्याम तमाल, वारणपुष्प तथा अष्टपदिका लताओं का दर्शन किया । कहीं कमल और उत्पल से भरे हुए रमणीय सरोबर शोभा पाते थे। कहीं पर्वत-सदृश ऊंचे-ऊंचे महल दिखाई देते थे जो विमान के आकार में बने हुए थे। वहां सभी ऋतुओं के फूल खिले हुए थे। भरतनन्दन। कहीं शीतल जल थे तो कहीं उष्ण, उन महलों में विचित्र आसन और उत्तमोत्तम शैय्याऐं विछी हुई थीं। सोने के बने हुए रत्‍नजड़ित पलंगों पर बहुमूल्य बिछौने विछे हुए थे। विभिन्न स्थानों में अनन्त भक्ष, भोज्य पदार्थ रखे गये थे। राजा ने देखा, मनुष्यों की-सी वाणी बोलने वाले तोते और सारिकाऐं चहक रही हैं। भृंगराज, कोयल, शतपत्र, कायष्टि, कुक्कुभ, मोर, मुर्गे, दात्यूह, जीवजीवक, चकोर, वानर, हंस, सारस और चक्रवाक आदि मनोहर पशु-पक्षी चारों ओर सानन्द विचर रहे हैं। पृथ्वीनाथ। कहीं झुण्ड-की-झुण्ड अप्सराऐं विहार कर रही थीं। कहीं गन्धर्वों के समुदाय अपनी प्रियतमाओं के आलिंगन-पाश में बंधे हुए थे। उन सबको राजा ने देखा। वे कभी उन्हें देख पाते थे और कभी नहीं देख पाते थे। राजा कभी संगीत की मधुर ध्वनि सुनते, कभी वेदों के स्वाध्याय का गम्भीर घोष उनके कानों में पड़ता और कभी हंसों की मीठी वाणी उन्हें सुनाई देती थी। उस अति अद्भुत दृश्‍य को देखकर राजा मन-ही-मन सोचने लगे- अहो। यह स्वप्न है या मेरे चित्त में भ्रम हो गया है अथवा यह सब कुछ सत्य ही है। अहो क्या मैं इसी शरीर से परम गति को प्राप्त हो गया हूं अथवा पुण्यमय उत्तरकुरू या अमरावती पुरी में आ पहुंचा हूं। ‘यह महान आश्‍चर्य की बात जो मुझे दिखाई दे रही है, क्या है? इस तरह वे बार-बार विचार करने लगे। राजा इस प्रकार सोच ही रहे थे कि उनकी दृष्टि मुनि प्रवर च्यवन पर पड़ी। मणिमय खंबों से युक्त सुवर्णमय विमान के भीतर बहुमूल्य दिव्य पर्यंक पर वे भृगुनन्दन च्यवन लेटे हुए थे।।उन्हें देखते ही पत्‍नी सहित महाराज कुशिक बड़े हर्ष के साथ आगे वढे। इतने ही में फिर महर्षि च्यवन अन्तर्धान हो गये। साथ ही उनका वह पलंग भी अदृश्‍य हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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