महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-14

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:०६, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण (श्रेणी:महाभारत आदिपर्व; Adding category Category:महाभारत अादिपर्व (को हटा दिया गया हैं।))
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुर्विंशत्य‍धिकशततम (124) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुर्विंशत्य‍धिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

राजा पाण्‍डु की मृत्‍यु और माद्री का उनके साथ चितारोहण वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस महान् वन में रमणीय पर्वत-शिखर पर महाराज पाण्‍डु उन पांचों दर्शनीय पुत्रों को देखते हुए अपने बाहुबल के सहारे प्रसन्नता पूर्वक निवास करने लगे । एक दिन की बात है, बुद्धिमान् अर्जुन का चौदहवां वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्‍म-तिथी को उत्तराफाल्‍गुनी नक्षत्र में ब्राह्मण लोगों ने स्‍वस्तिवाचन प्रारम्‍भ किया। उस समय कुन्‍ती देवी को महाराज पाण्‍डु की देख-भाल का ध्‍यान न रहा। वे ब्राह्मणों को भोजन कराने में लग गयीं। पुरोहित के साथ स्‍वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं। इसी समय काम मोहित पाण्‍डु माद्री को बुलाकर अपने साथ ले गये। उस समय चैत्र और वैशाख के महीनों की संधि का समय था, समूचा वन भांति-भांति के सुन्‍दर पुष्‍पों से अलंकृत हो अपनी अनुपम शोभा से समस्‍त प्राणियों को मोहित कर रहा था, राजा पाण्‍डु अपनी छोटी रानी के साथ वन में विचरने लगे । पलाश, तिलक, आम, चम्‍पा, पारिभद्रक तथा और भी बहुत-से वृक्ष-फूलों की समद्धि से भरे हुए थे। जो उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के जलाशयों तथा कमलों से सुशोभित उस वन की मनोहर छटा देखकर राजा पाण्‍डु के मन में काम का संचार हो गया । वे मन में हर्षोल्‍लास भरकर देवता की भांति वहां विचर रहे थे। उस समय माद्री सुन्‍दर वस्त्र पहिने अकेली उनके पीछे-पीछे जा रही थी । वह युवावस्‍था से युक्त थी और उसके शरीर पर झीनी-झीनी साड़ी सुशोभित थी। उसकी ओर देखते ही पाण्‍डु के मन में कामना की आग जल उठी, मानो घने वन में दावाग्नि प्रज्‍वलित हो उठी हो । एकान्‍त प्रदेश में कमल नयनी माद्री को अकेली देखकर राजा काम का वेग रोक न सके, वे पूर्णत: कामदेव के अधीन हो गये थे । अत: एकान्‍त में मिली हुई माद्री को महाराज पाण्‍डु ने बलपूर्वक पकड़ लिया। देवी माद्री राजा की पकड़ से छूटने के लिये यथाशक्ति चेष्टा करती हुई उन्‍हें बार-बार रोक रही थी । परंतु उनके मन पर तो कामना का वेग सवार था; अत: उन्‍होंने मृग रूपधारी मुनि से प्राप्त शाप का विचार नहीं किया। कुरुनन्‍दन जनमेजय ! वे काम के वश में हो गये थे, इसीलिये प्रारब्‍ध से प्रेरित हो शाप के भय की अवहेलना करके स्‍वयं ही अपने जीवन का अन्‍त करने के लिये बलपूर्वक मैथुन करने की इच्‍छा रखकर माद्री से लिपट गये । साक्षात् काल ने कामात्‍मा पाण्‍डु की बुद्धि मोह ली थी। उनकी बुद्धि सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को मथकर विचार शक्ति के साथ स्‍वयं भी नष्ट हो गयी थी । कुरुकुल को आनन्दित करने वाले परम धर्मात्‍मा महाराज पाण्‍डु इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी माद्री से समागम करके काल के गाल में पड़ गये । तब माद्री राजा के शव से लिपटकर बार-बार अत्‍यन्‍त दु:ख भरी वाणी में विलाप करने लगी । इतने में ही पुत्रों सहित कुन्‍ती और दोनों पाण्‍डुनन्‍दन माद्री कुमार एक साथ उस स्‍थान पर आ पहुंचे, जहां राजा पाण्‍डु मृतकावस्‍था में पड़े थे ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

__INDEX_