महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 43 श्लोक 13-29

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त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 13-29 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! तुम जिस (तपस्‍या) के विषय में मुझसे पूछ रहे हो, यह तपस्‍या ही सारे जगत् का मूल है; वेदवेत्‍ता विद्वान् इस (निष्‍काम) तपसे ही परम अमृत मोक्ष को प्राप्‍त होते हैं।

धृतराष्‍ट्र बोले- सनत्‍सुजातजी मैंने दोषरहित तपस्‍या का महत्‍व सुना। अब तपस्‍या के जो दोष हैं, उन्‍हें बताइये, जिससे मैं इस सनातन गोपनीय ब्रह्मतत्‍त्‍व को जान सकूं।

सनत्‍सुजात ने कहा-राजन्! तपस्‍याके क्रोध आदि बारह दोष है तथा तेरह प्रकार के नृशंस मनुष्‍य होते हैं। मन्‍वादिशास्‍त्रों में कथित ब्राह्मणों के धर्म आदि बारह गुण प्रसिद्ध हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिकीर्षा, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्‍पृहा, ईर्ष्‍या ओर निंदा-मनुष्‍यों में रहनेवाले ये बारह दोष मनुष्‍यों के लिये सदा ही त्‍याग देने योग्‍य हैं। नरश्रेष्‍ठ! जैसे व्‍याघा मृगों को मारने का छिद्र (अवसर) देखता हुआ उनकी टोह में लगा रहता है, उसी प्रकार इनमें से एक-एक दोष मनुष्‍यों का छिद्र देखकर उनपर आक्रमण करता है। अपनी बहुत बड़ाई करने वाले, लोलुप, तनिक-से भी अपमानको सहन न करने वाले, निरंतर क्रोधी,चञ्चल और आश्रितों की रक्षा नहीं करने वाले-ये छ: प्रकार के मनुष्‍य पापी हैं। महान् संकट में पड़ने पर भी ये निडर होकर इन पाप-कर्मों का आचरण करते हैं। सम्‍भोगमें ही मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्‍यंत मानी, दान देकर पश्र्चात्‍ताप करनेवाले, अत्‍यंत कृपण, अर्थ और काम की प्रशंसा करने वाले तथा स्त्रियों के द्वेषी-ये सात और पहले के छ: कुल तेरह प्रकार के मनुष्‍य नृशंसवर्ग (क्रुर-समुदाय) कहे गये हैं। धर्म, सत्‍य, इन्द्रियनिग्रह तप, मत्‍सरता का अभाव, लज्‍जा, सहनशीलता, किसी के दोष न देखना, यज्ञ करना, दान देना, धैर्य और शास्‍त्रज्ञान- ये ब्राह्मण के बारह व्रत है। जो इन बारह व्रतों (गुणों) पर अपना प्रभुत्‍व रखता है, वह इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी के मनुष्‍यों को अपने अधीन कर सकता है। इनमें से तीन, दो या एक गुण से भी जो युक्‍त हो, उसके पास सभी प्रकार का धन है, ऐसा समझना चाहिये।
दम, त्‍याग ओर अप्रमाद-इन तीन गुणों में अमृत का वास है। जो मनीषी (बुद्धिमान्) ब्राह्मण हैं, वे कहते हैं कि इन गुणों का मुख सत्‍यस्‍वरूप परमात्‍मा की ओर है (अर्थात् ये परमात्‍मा की प्राप्ति के साधन हैं )। दम अठारह गुणोंवाला है। (निम्‍नाङ्कित अठारह दोषों के त्‍याग को ही अठारह गुण समझना चाहिये)-कर्तव्‍य –अकर्तव्‍य के विषय में विपरीत धारणा, असत्‍यभाषण, गुणों में दोषदृष्टि, स्‍त्री -विषयक कामना, सदा धनोपार्जन में ही लगे रहना, भोगेच्‍छा, क्रोध, शोक, तृष्‍णा, लोभ, चुगली करनेकी आदत, डाह, हिंसा, संताप, शास्‍त्र में अरति, कर्तव्‍य की विस्‍मृत, अधिक बकवाद और अपने को बड़ा समझना-इन दोषों से जो मुक्‍त है, उसी को सत्‍पुरूष दांत (जितेन्द्रिय) कहते हैं। मद में अठारह दोष है; ऊपर जो दम के विपर्यय सूचित किये गये हैं, वे ही मद के दोष बताये गये हैं। त्‍याग छ: प्रकार का होता है, वह छहों प्रकार का त्‍याग अत्‍यंत उत्‍तम है; किंतु इनमें तीसरा अर्थात् कामत्‍याग बहुत ही कठिन है, इसके द्वारा मनुष्‍य त्रिविध दु:खों को निश्र्चय ही पार कर जाता है। कामका त्‍याग कर देनेपर सब कुछ जीत लिया जाता है। राजेन्‍द्र! छ: प्रकार का जो सर्वश्रेष्‍ठ त्‍याग है, उसे बताते हैं। लक्ष्‍मी को पाकर हर्षित न होना-यह प्रथम त्‍याग है; यज्ञ-होमादि में तथा कुएं, तालाब और बगीचे आदि बनाने में धन खर्च करना दूसरा त्‍याग है और सदा वैराग्‍य से युक्‍त रहकर काम का त्‍याग करना-यह तीसरा त्‍याग कहा गया है। महर्षिलोग इसे अनिर्वचनीय मोक्ष का उपाय कहते हैं। अत: यह तीसरा त्‍याग विशेष गुण माना गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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