महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-19

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दशम (10) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: दशमअध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


अनधिकारी को उपदेश देने से हानि के विषय में एक शूद्र और तपस्‍वी ब्राह्माण की कथा

युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! यदि कोई मित्रता या सौहार्द के सम्‍बन्‍ध से किसीनीच जाति के मनुष्‍य को उपदेश देता है तो उस राजर्षि को दोष लगेगा या नहीं ? मैं इस बात को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूं । आप इसका विशदरूप से विवेचन करें, क्‍योंकि धर्म की गति सूक्ष्‍म है, जहां मनुष्‍य मोह में पड़ जाते हैं।

भीष्‍मजी ने कहा – राजन् ! इस विषय में पूर्वकाल में ऋषियों के मुख सेजैसा मैंने सुना है, उसी क्रम से बताउंगा, तुम ध्‍यान देकर सुनों। किसी भी नीच जाति के मनुष्‍य को उपदेश नहीं देना चाहिए । उसे उपदेश देने पर उपदेशक आचार्य के लिये महान् दोष बताया जाता है। भरतभूषण राजा युधिष्ठिर ! इस विषय में एक दृष्‍टांत सुनों, जो दु:ख में पड़े हुए एक नीच जाति के पुरूष को उपदेश देने से संबंधित है। हिमालय के सुन्‍दर पार्श्‍व भाग में, जहां बहुत-से ब्राह्माणों के आश्रम बने हुए है, यह वृतान्‍त घटित हुआ था । उस प्रदेश में एक पवित्र आश्रम है जहां नाना प्रकार के हरे-भरे वृक्ष शोभा पाते हैं। नाना प्रकार की लता-बेलें वहां छायी हुई हैं । मृग और पक्षी उसआश्रमका सेवन करते हैं । सिद्ध और चारण वहां निवास करते हैं । उस रमणीय आश्रम के आस-पास का वन सुन्‍दर पुष्‍पों से सुशोभित है। बहुत-से व्रतपरायण तपस्‍वी उस आश्रम का सेवन करते हैं। कितने ही सूर्य और अग्नि के समान तेजस्‍वी महाभाग ब्रह्माण वहां भरे रहते हैं। भरतश्रेष्‍ठ ! नियम और व्रत से सम्‍पन्‍न, तपस्‍वी, दीक्षित, मिताहारी ओर जितात्‍मा मुनियों से वह आश्रम भरा रहता है। भरतभूषण ! वहां सब ओर वेदाध्‍यन की ध्‍वनि गूंजती रहती है । बहुत-से वालखिल्‍य एवं सन्‍यासी उस आश्रम का सेवन करते हैं।उसी आश्रम में कोई दयालु शूद्र बड़ा उत्‍साह करके आया । वहां रहने वाले तपस्‍वी ऋषियों ने उसका बड़ा आदर-सत्‍कार किया। भरतनन्‍दन ! उस आश्रम के महातेजस्‍वी देवोपम मुनियों को नाना प्रकार की दीक्षा धारण किये देख उस शूद्र को बड़ा हर्ष हुआ। भारत ! भरतभूषण ! उसके मन मेंवहां तपस्‍या करने का विचार उत्‍पन्‍न हुआ, अत:

उसके कुलपति के पैर पकड़कर कहा -। 'द्विजश्रेष्‍ठ ! मैं आपकी कृपा से धर्म का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहता हूं । अत: भगवन् ! आप मुझे विधिवत् संन्‍यासी की दीक्षा दे दें'। 'भगवन् ! साधुशि‍रोमणि ! मैं वर्णों में सबसे छोटा शूद्र जाति का हूं ओर यहीं रहकर संतों की सेवा करना चाहता हूं, अत: मुझ शरणागत पर आप प्रसन्‍न हों'।

कुलपति ने कहा - इस आश्रम में कोई शूद्र संन्‍यास का चिन्‍ह धारण करके नहीं रक सकता। यदि तुम्‍हारा विचार यहां रहने का हो तो यों ही रहो और साधु-महात्‍माओं की सेवा करो । सेवासे ही तुम उत्‍तम लोक प्राप्‍त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है।

भीष्‍मजी कहते हैं - नरेश्‍वर ! मुनि के ऐसा कहने पर शूद्र ने सोचा, यहां मुझे क्‍या करना चाहिए ? मेरी श्रद्धा तो संन्‍यास-धर्म के अनुष्‍ठा के लिये ही है। अच्‍छा, एक बात समझ में आयी । शूद्र के लिये ऐसा ही विधान हो तो रहे । मैं तो वही करूंगा जो मुझे प्रिय लगता है – ऐसा विचार कर उसने उस आश्रम से दूर जाकर एक पर्णकुटी बना ली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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