महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 339 श्लोक 91-113

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एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (339) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 19-113 का हिन्दी अनुवाद

वहाँ रहकर देवमाता अदिति का अप्रिय करने वाले भूमिपुत्र नरकासुर, मुर तथा पीठ नामक दानवों का संहार करूँगा एवं नाना प्रकार के धन-धान्य से सम्पन्न जो प्राग्ज्योतिषपुर नामक रमणीय नगर है, वहाँ दानवराज नरक का वध करके उसका सारा वैभव कुशस्थली पहुँचा दूँगा।। गिरगिट की योनि में पडत्रे हुए राजा नृग का भी उद्धार करूँगा। उसी अवतार में अपने पौत्र अनिरूद्ध के निमित्त बाणासुर की राजधानी शोणितपुर में जाकर वहाँ की असुर सेना का महान् संहार कर डालूँगा।। बाणासुर का प्रिय और हित चाहने वाले विश्ववन्दित देवता भगवान शंकर और कार्तिकेय भी जब मेरे साथ युद्ध के लिये उद्यत होंगे, तब उन दोनों को पराजित कर दूँगा। तदनन्तर सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित बलिपुत्र बाणासुर को पराजित करके शाल्व के सौभ विमान में रहने वाले समस्त योद्धाओं का विनाश कर डालूँगा। द्विजोत्तम ! गर्गाचार्य के तेज से उत्पन्न होकर शक्तिशाली बना हुआ जो कालयवन नामक विख्यात असुर होगा, उसका वध भी मेरे ही द्वारा सम्पन्न होगा।। गिरिव्रज में जरासंध नामक एक बलवान् असुर राजा होगा, जो सम्पूर्ण राजाओं से वैर मोल लेता फिरेगा। मेरे ही बौद्धिक प्रयत्न से उसका भी वध हो सकेगा। धर्मपुत्र युधिष्ठिर के यज्ञ में भूमण्डल के समस्त बलवान् राजा पधारेंगे, उनके बीच में मैं शिशुपाल का वध कर डालूँगा। एकमात्र इन्द्रकुमार अर्जुन मेरा सखा एवं सुन्दर सहायक होगा। मैं राजा युधिष्ठिर को उनके भाइयों सहित पुनः राजपद पर प्रतिष्ठित करूँगा। उस समय के लोग कहेंगे कि ये ईश्वर रूप नर और नारायण नामक ऋषि ही एक साथ उद्यत हो लोकहित के लिये क्षत्रिय जाति का संहार कर रहे हैं।। साधु शिरामणि ! पृथ्वीदेवी की इच्छा के अनुसार उसका भार उतारकर मैं द्वारका के समस्त यादव-शिरोमणियों का नाश करके अपनी जाति का विनाशरूप घोर कर्म करूँगा। श्रीकृरूण, बलभद्र, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध - इन चार स्वरूपों को धारण करने वाला मैं असंख्य कर्म करके ब्रह्माजी के द्वारा सम्मानित अपने धाम को चला जाऊँगा।। द्विजश्रेष्ठ ! हंस, कूर्म, मत्स्य, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, दशरथनन्दन राम, यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि - ये सब मेरे अवतार हैं।तब-तब वेद-श्रुति लुप्त हुई है, तब-तब अवतार लेकर मैंने पुनः उसे प्रकाश में ला दिया है। मैंने ही पहले सतयुग में वेदों सहित श्रुतियों कर प्रकट किया था। मेरे जो अवतार अब तक व्यतीत हो चुके हैं, उन्हें सम्भवतः तुमने पुराणों में सुना होगा। मेरे कई उत्तमोत्तम अवतार हो चुके हैं। वे अवतार लोकहित के कार्य सम्पन्न करके पुनः अपने मूल स्वरूप में मिल गये हैं। मुझमें अनन्य भक्ति रखने के कारण आज तुमने यहाँ जिस स्वरूप का दर्शन पाया है, मेरे ऐसे स्वरूप का दर्शन अब तक ब्रह्मा को भी नहीं प्राप्त हो सका है। ब्रह्मन् ! साधु प्रवर ! तुम मुझमें भक्तिभाव रखने वाले हो, इसलिये मैंने तुमसे भूत और भविष्य के सारे अवतारों का रहस्य सहित वर्णन किया है।

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! विश्वस्वरूपधारी अविनाशी भबवान् नारायणदेव इतनी बात कहकर वहाँ पुनः अन्तर्धान हो गय। तब महातेजस्वी नारदजी भी भगवान् का मनोवान्छित अनुग्रह पाकर नर-नारायण का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम की ओर चल दिये। यह महान् उपनिषद् (ज्ञान) चारों वेदों के विज्ञान से सम्पन्न हे। इसमें सांख्य और योग का सिद्धान्त कूट-कूटकर भरा है इाकी पांचरात्र आगम के नाम से प्रसिद्धि है। साक्षात् नारायण के मुख से इसका गान हुआ है। तात ! इस विषय को नारदजी ने श्वेतद्वीप में जैसा देखा और सुना था, वैसा ही ब्रह्माजी के भवन में सुनाया था।।

युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! बंद्धिमान् नारायणदेव का महात्म्य तो बड़ा ही आश्चर्यमय है। क्या ब्रह्माजी इसे नहीं जानते थे कि नारदजी के मुख से इसका श्रवण किया?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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