महाभारत आदि पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-18

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एकषष्टितम (61) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

कौरवों-पाण्‍डवों में फूट और युद्ध होने के वृतान्‍त का सूत्ररुप में निर्देश

वैशम्‍पायनजी ने कहा- राजन् ! मैं सबसे पहले श्रद्धा भक्तिपर्वूक एकाग्रचित्त से अपने गुरुदेव श्रीव्‍यासजी महाराज को साष्टांग नमस्‍कार करके सम्‍पूर्ण द्विजों तथा अन्‍यान्‍य विद्वानों का समादर करते हुए यहां सम्‍पूर्ण लोकों में विख्‍यात महर्षि एवं महात्‍मा इन परम बुद्विमान् व्‍याजी के मत का पूर्णरुप से वर्णन करता हूं। जनमेजय ! तुम इस महाभारत की कथा को सुनने के लिये उत्तम पात्र हो और मुझे यह कथा उपलब्‍ध है तथा श्रीगुरुजी के मुखारविन्‍द से मुझे यह आदेश मिल गया है कि मैं तुम्‍हें कथा सुनाऊं, इससे मेरे मन को बड़ा उत्‍साह प्राप्त होता है। राजन् ! जिस प्रकार कौरव और पण्‍डवों में फूट पड़ी, वह प्रसंग सुनो। राज्‍य के लिये जो जुआ खेला गया, उससे उनमें फूट हुई और उसी के कारण पाण्‍डवों का वनवास हुआ। भरतश्रेष्ठ ! फि‍र जिस प्रकार पृथ्‍वी के वीरों का विनाश करने वाला महाभारत-युद्ध हुआ, वह तुम्‍हारे प्रश्न के अनुसार तुमसे कहता हूं, सुनो । अपने पिता महाराज पाण्‍डु के स्‍वर्गवासी हो जाने पर वे वीर पाण्‍डव वन से अपने राजभवन में आकर रहने लगे। वहां थोड़े ही दिनों में वे वेद तथा धनुर्वेद के पूरे पण्डित हो गये। सत्‍व (धैर्य और उत्‍साह), वीर्य (पराक्रम) तथा ओज (देहबल) से सम्‍पन्न होने के कारण पाण्‍डव लोग पुरवासियों के प्रेम और सम्‍मान के पात्र थे। उनके धन, सम्‍पत्ति और यश की वृद्धि होने लगी। यह सब देखकर कौरव उनके उत्‍कर्ष को सह न सके। तब क्रूर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तीनों ने मिलकर पाण्‍डवों को वश में करने तथा देश से निकाल देने के लिये नाना प्रकार के यत्‍न आरम्‍भ किये। शकुनि की सम्‍मति से चलने वाले शूरवीर दुर्योधन ने राज्‍य के लिये भांति-भांति के उपाय करके पाण्डवों को पीड़ा दी। उस पापी धृतराष्ट्र ने भीमसेन को विष भी दे दिया, किंतु वीरवर भीमसेन ने भोजन के साथ उस विष को भी पचा लिया। फि‍र दुर्योधन ने गंगा के प्रमाण कोटि नामक तीर्थ पर सोये हुए भीमसेन को बांधकर गंगा जी के गहरे जल में डाल दिया और स्‍वयं नगर में लौट आया । जब कुन्‍तीनन्‍दन महाबाहु भीम की आंख खुली, तब वे सारा बन्‍धन तोड़कर बिना किसी पीड़ा के उठ खड़े हुए। एक दिन दुर्योधन ने भीमसेन को सोते समय उनके सम्‍पूर्ण अंग-प्रत्‍यंगो में काले सांपो से डंसवा दिया, किंतु शत्रुघाती भीम मर न सके। कौरवों के द्वारा किये हुए उन सभी अपकारों के समय पाण्‍डवों को उनसे छुड़ाने अथवा उनका प्रतीकार करने के लिये परम बुद्धिमान् विदुरजी सदा सावधान रहते थे । जैसे स्‍वर्ग लोक में निवास करने वाले इन्‍द्र सम्‍पूर्ण जीव-जगत् को सुख पहुंचाते रहते हैं, उसी प्रकार विदुरजी भी सदा पाण्‍डवों को सुख दिया करते थे। भविष्‍य में जो घटना घटित होने वाली थी, उसके लिये मानो दैव ही पाण्‍डवों की रक्षा कर रहा था। जब छिपकर या प्रकटरुप में किये हुए अनेक उपायों से भी दुर्योधन पाण्‍डवों का नाश न कर सका तब उसने कर्ण और दु:शासन आदि मन्त्रियों से सलाह करके धृतराष्ट्र की आज्ञा से बारणावत नगर में एक लाह का घर बनाने की आज्ञा दी । अम्बिकानन्‍दन धृतराष्ट्र अपने पुत्र का प्रिय चाहने वाले थे। अत: उन्‍होंने राज्‍य भोग की इच्‍छा से पाण्‍डवों को हस्तिनापुर छोड़कर बारणावत के लाक्षागृह में रहने की आज्ञा दे दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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