महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 82 श्लोक 29-36

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द्वयशीतितम (82) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद

बहुत-से रथी, सवारों सहित हाथी, घोडे़ तथा पैदल सैनिक नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से आच्छादित हो एक दूसरे से टकराकर लड़खड़ाने लगते, आर्तनाद करते और प्राणशून्य होकर गिर पड़ते थे। राजन् इस प्रकार जब वह भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय राजा का छोटा भाई आपका पुत्र दुःशासन निर्भय हो बाणों की वर्षा करता हुआ भीमसेन पर चढ़ आया। उसे देखते ही भीमसेन भी बडे़ उतावले होकर उसकी और दौडे़ और जिस प्रकार सिंह महारूरू नामक मृगपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उसके पास जा पहुँचे।। उन दोनों के मन में एक दूसरे के प्रगति महान् रोष भरा हुआ था। दोनों ही प्राणों की बाजी लगाकर अत्यन्त भयंकर युद्ध का जूआ खेल रहे थे। उन प्रचण्ड वीरों का वह संग्राम शम्बरासुर और इन्द्र के समान हो रहा था। शरीर को पीड़ा देनेवाले अत्यन्त पैने बाणोंद्वारा वे दोनों वीर एक दूसरे को गहरी चोट पहुँचाने लगे; मानो मेंथुन की इच्छावाली हथिनी के लिये कामासक्त चित्त होकर दो मदस्त्रावी गजराज परस्पर आघात करते हों। सारथि सहित उन दोनों शूरवीरों ने जब वहां एक दूसरे को एक साथ देखा, तब भीम ने अपने सारथि से कहा-दुःशासन ओर चलो और दुःशासन ने अपने सारथि से कहा-भीमसेन की ओर चलो।
साथियों द्वारा एक साथ हाँके गये उन दोनों के रथ रणभूमि में दोनों के पास सहसा जा पहुँचे। वे दोनों ही रथ नाना प्रकार के आयुधों से सम्पन्न तथा विचित्र पताकाओं और ध्वजाओं से सुशोभित थे। जैसे पूर्वकाल में स्वर्ग के निमित्त होनेवाले युद्ध में बालासुर और इन्द्र के रथ थे, उसी प्रकार दुःशासन और भीमसेन के भी थे। भीमसेन बोले - दुःशासन ! बडे़ सौभाग्य की बात है कि तू आज मुझे दिखायी दिया है। कौरव-सभा में द्रौपदी का स्पर्श करने के कारण दीर्धकाल से जो तेरा ऋण मेंरे ऊपर चढ़ गया है, उसे में आज ब्याज और मूलसहित चुकाना चाहता हूँ। तू मुझसे वह सब ग्रहण कर।। संजय कहते हैं- राजन् ! भीमसेन के ऐसा कहने पर महामनस्वी वीर दुःशासन ने इस प्रकार कहा।
दुःशासन बोला- भीमसेन ! मुझे सब कुछ याद है। में भूलता नहीं हूँ । तुम मेंरी कहीं हुई बात सुनो। में अपनी की हुई सारी बातों को चिरकाल से याद रखता हूँ। पहले तुमलोग लाक्षागृह में रात-दिन सशंक होकर निवास करते थे। फिर वहाँ से निकाले जाकर वन में सर्वत्र शिकार खेलते हुए रहने लगे। रात-दिन महान् भय में डूबे रहकर तुम चिन्ता में पडे़ रहते और सुख एवं उपभोग से वंचित हो जंगलो तथा पर्वत की कन्दराओं में धूमते थे। इसी अवस्था में तुम सब लोग एक दिन पांचालराज के नगर में जा घूसे। वहाँ तुम लोगों ने किसी माया में प्रविष्ट होकर अपने स्वरूप को छिपा लिया था; इसलिये द्रौपदी ने तुम लोगों से अर्जुन का वरण कर लिया। परंतु तुम सब पापियों ने मिलकर उसके साथ वह नीचोंका -सा बर्ताव किया, जो तुम्हारी माता की करनी के अनुरूप था। द्रौपदी ने तो एकहींका वरण किया, परंतु तुम पांचों ने उसे अपनी पत्नी बनाया और इस कार्य में तुम्हें एक दूसरे से तनिक भी लज्जा नहीं हुई। मुझे यह भी याद है कि कौरवसभा में शकुनि ने द्रौपदी सहित तुम सब लोगों को दास बना लिया था।
संजय कहते हैं- राजन् ! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर पाण्डुकुमार भीमसेन क्रोध के वशीभूत हो गये। वृकोदर ने बड़ी उतावली के साथ दो क्षुरों के द्वारा आपके पुत्र दुःशासन के धनुष और ध्वज को काट दिया, एक बाण से उसके ललाट में घाव कर दिया और दूसरे से उसके सारथि मस्तक भी धड़ से अलग कर दिया। तब राजकुमार दुःशासन भी दूसरा धनुष लेकर भीमसेन को बारह बाणों से बींध डाला और स्वयं ही घोड़ों को काबू में रखते हुए उसने पुनः उनके ऊपर सीधे जानेवाले बाणों की झड़ी लगा दी। इसके बाद दुःशासन ने सूर्य की किरणों के समान कांतिमान्, सुवर्ण और हीरे आदि उत्तम रत्नों से विभूषित तथा देवराज इन्द्र के वज्र एवं विद्युत्-पात के समान दुःसह एक ऐसा भयंकर बाण छोड़ा, जो भीमसेन के अंगों को विदीर्ण कर देने में समर्थ था। उससे भीमसेन का शरीर छिद गया। वे बहुत शिथिल हो गये और प्राणहीन के समान दोनों बाँहें फैलाकर अपने श्रेष्ठ रथपर लुढ़क गये। फिर थोडी ही देर में होश में आकर भीमसेन सिंह के समान दहाड़ने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में दुःशासन और भीमसेन युद्धविषयक बयसीवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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