महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 25-29

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अष्टाशीतितम (88) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 25-29 का हिन्दी अनुवाद

बुढे़ पिता धृतराष्ट्र, विद्वान, उत्तम बुद्धि से युक्त, धैर्यवान् तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्व को जाननेवाले हैं; अतः तुम्हारे जिये राज्य का जितना भाग उचित है, उसपर शासन करने के लिये वे तुम्हें स्वयं ही आज्ञा दे देंगे।। धर्मात्मा युधिष्ठिर वैर दूर कर देंगे; क्योंकि आत्मीयजन से कोई भूल हो जाय तो उसे अक्षम्य अपराध नहीं माना जाता। श्रीकृष्ण भी यह नहीं चाहते कि आपस में कलह हो, वे स्वज-नोंपर सदा संतुष्ट रहते हैं। भीमसेन, अर्जुन और दोनों भाई माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव- ये सब लोग भगवान् श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान् युधिष्ठिर की राय से चलते हैं; अतः ये पुरूषसिंह वीर उन दोनों के आदेश का गौरव रखते हुए युद्ध से निवृत हो जायँगे। दुर्योधन ! तुम स्वयं ही अपनी रक्षा करो। आत्मा ही सब सुखों का भाजन है। तुम जीवन-रक्षा के लिये प्रयत्न करो। जीवित रहनेवाला पुरूष ही कल्याण का दर्शन करता है। तुम्हारा कल्याण हो; तुम जीवित रहोगे, तभी तुम्हें राज्य और लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है। कुरूनन्दन ! मरे हुए को राज्य नहीं मिलता, फिर सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? भारत ! लोक में घटित होनेवाले इस प्रचलित व्यवहार की ओर दृष्टिपात करो; पाण्डवों के साथ संधि कर लो और कौरवकुल को शेष रहने दो।
कुरूनन्दन! ऐसा समय कभी न आवे जब कि में इच्छानुसार तुमसे कोई अहितकर बात कहूँ; अतः महाबाहो! तुम मेंरी बात का अनादर न करो।। मेरा यह कथन धर्म के अनुकूल तथा राजा और राज कुल के लिये अत्यन्त हितकर है; यह कौरव वंश की वृद्धि के लिये परम कल्याणकारी है। गान्धारीनन्दन ! मेरा यह वचन प्रजाजनों के लिये हितकर, इस कुल के लिये सुखदायक, लाभकारी तथा भविष्य में भी मंगलकारक है। नरश्रेष्ठ ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि कर्ण नरव्याघ्र अर्जुन को कदापि जीत न सकेगा; अतः मेरा यह शुभ वचन तुम्हें प्रसंद आना चाहिये। राजेन्द्र ! यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ा भारी विनाश होगा। किरीटधारी अर्जुन ने अकेले जो पराक्रम किया है, इसे सारे संसार के साथ तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। ऐसा पराक्रम न तो इन्द्र कर सकते हैं और न यमराज। न धाता कर सकते हैं और न भगवान् यक्षराज कुबे। यद्यपि अर्जुन अपने गुणों द्वारा इससे भी बहुत बढे़-चढे़ हैं, तथापि मुझे विश्वास है कि वे मेंरी कहीं हुई इन सारी बातों को कदापि नहीं टालेंगे। यही नहीं, वे सदा तुम्हारा अनुसरण करेंगे; इसलिये राजेन्द्र ! तुम प्रसन्न होओ और संधि कर लो। तुम्हारे प्रति मेंरे मन में भी सदा बडे़ आदर का भाव रहा है। हम दोनों की जो धनिष्ठ मित्रता है, उसी के कारण में तुमसे यह प्रस्ताव करता हूँ। यदि तुम प्रेमपूर्वक राजी हो जाओगे तो में कर्ण को भी युद्ध से रोक दूँगा। विद्वान् पुरूष चार प्रकार के मित्र बतलाते हैं। एक सहज मित्र होते हैं (जिके साथ स्वाभाविक मेंत्री होती हैं)। दूसरे हैं संधि करके बनाये हुए मित्र। तीसरे वे हैं जो धन देकर अपनाये गये हैं जो किसी के प्रबल प्रताप से प्रभावित हो स्वतः शरण में आ जाते हैं, वे चैथे प्रकार के मित्र हैं । पाण्डवों के साथ तुम्हारी सभी प्रकार की मित्रता सम्भव है।। वीर ! एक तो वे तुम्हारे जन्मजात भाई हैं; अतः सहज मित्र हैं। प्रभो ! फिर तुम संधि करके उन्हें अपना मित्र बना लो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों से मित्रता स्वीकार कर लो तो तुम्हारे द्वारा संसार का अनुपम हित हो सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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