महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-3

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द्वाविंश (22) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: द्वाविंश अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद

   तुम्हारी सेना मेरी व्यूहरचनायुक्त सेना के साथ लड़ ले अथवा तुम में से कोई एक मुझ अकेले के साथ युद्ध करे अथवा मैं अकेला ही तुम में से दो या तीनों के साथ बारी-बारी से या एक ही साथ युद्ध कर सकता हूँ।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! ऐसा कहकर भयानक कर्म करने वाले उन तीनों वीरों के साथ युद्ध की इच्छा रखकर राजा जरासंध ने अपने पुत्र सहदेव के राज्याभिषेक की आज्ञा दे दी। भरतश्रेष्‍ठ ! तदनन्तर मगधनरेश ने वह युद्ध उपस्थित होने पर अपने सेनापति कौशिश और चित्रसेन का स्मरण किया (जो उस समय जीवित नहीं थे)। राजन् ! ये वे ही थे, जिन के नाम पहले तुम से हंस और डिम्भक बताये हैं । मनुष्य लोक के सभी पुरूष उनके प्रति बड़े आदर भाव रखते थे। जनमेजय ! मनस्वी पुरूषों में सर्वश्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी, वसुदेव पुत्र एवं बलराम के छोटे भाई भगवान् मधुसूदन ने दिव्य दृष्टि से स्मरण करके यह जान लिया था कि सिंह के पराक्रमी, बलवानों में श्रेष्ठ और भयानक पुरूषार्थ प्रकट करने वाला यह राजा जरासंध युद्ध में दूसरे वीर का भाग (वध्य) नियत किया गया है । यदुवंशियों में से किसी के हाथ से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती, अतः ब्रह्मा जी के आदेश की रक्षा करने के लिये उन्होंने स्वयं उसे मारने की इच्छा नहीं की। जनमेजय ने पूछा- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण और मगधराज जरासंध दोनों एक दूसरे के शत्रु क्‍यों हो गये थे ? तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण को युद्ध में कैसे परास्त किया ? ।। कंस मगधराज जरासंध का कौन था, जिसके लिये उसने भगवान् से वैर ठान लिया । वैशम्पायन जी ! ये सब बातें मुझे यथार्थ रूप से बताइये ।। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! यदुकुल में परम बुद्धिमान् वसुदेव उत्पन्न हुए, जो वृष्णिवंश के राजकुमार तथा राजा उग्रसेन के विश्वसनीय मन्त्री थे ।। उग्रसेन का पुत्र बलवान् कंस हुआ, जो उनके अनेक पुत्रों में सबसे बड़ा था । कुरूनन्दन ! कंस ने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। जरासंध की पुत्री उसकी सुप्रसिद्ध पत्नी थी, जिसे बुद्धिमान् जरासंध ने इस शर्त के साथ दिया था कि इस के पति को तत्काल राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाय ।। इस शुक्ल की पूर्ति के लिये उग्रसेन के उस दुःसह पराक्रमी पुत्र को मन्त्रियों ने मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया ।। तब ऐश्वर्य के बल से उन्मत्त और शारीरिक शक्ति से मोहित हो कंस अपने पिता को कैद करके मन्त्रियों के साथ उनका राज्य भोगने लगा।। मन्दबुद्धि कंस वसुदेव के कर्तव्य-विषयक उपदेश को नहीं सुनता था, तो भी उसके साथ रहकर वसुदेव जी मथुरा के राज्य का धर्मपूर्वक पालन करने लगे ।। दैत्यराज कंस ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वसुदेव जी के साथ देवकी का ब्याह कर दिया, जो उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री थी ।। जनमेजय ! जब रथ पर बैठकर देवकी विदा होने लगी, तब राजा कंस भी उसे पहुँचाने के लिये वृष्णि वंशविभूषण वसुदेव के पास उस रथ पर जा बैठा ।। इसी समय आकाश में किसी देवदूत की वाणी स्पष्ट सुनायी देने लगी । वसुदेव जी ने तो उसे सुना ही, राजा कंस ने भी सुना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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