महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 99-119
षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
’द्रोणपुत्र ! ’खडा रह, खडा रह, तू मेरे हाथ से छूटकर जीवित नहीं जा सकेगा। आज इस रणाडणप में मैं तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूंगा। ऐसा कहकर क्रोध से लाल आंखें किये महाबली राक्षस घटोत्कच ने द्रोणपुत्र पर रोषपूर्वक धावा किया, मानो सिंह ने गजराज पर आक्रमण किया हो। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा पर रथ की धुरी के समान मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। परंतु द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अपने पास आने से पहले ही उस बाण-वर्षा को बाणों द्वारा नष्ट कर देता था। इससे आकाश में बाणों का दूसरा संग्राम-सा मच गया था। अस्त्रों से परस्पर टकराने से जो आग की चिनगारियां छूटती थीं, उससे रात्रि के प्रथम प्रहर में आकाश जुगनुओं से चित्रित-सा प्रतीत होता था। युद्धाभिमानी अश्वत्थामा के द्वारा अपनी माया नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षों से भरे हुए शिखरों द्वारा सुशोभित एक बहुत उंचा पर्वत बन गया। वह महान् पर्वत शूल, प्राप्त, खग, और मूसलरूपी जल के झरने बहा रहा था। अंजनगिरि के समान उस काले पहाड को देखकर और वहांसे गिरनेवाले बहुतेरे अस्त्र- शस्त्रों से घायल होकर भी द्रोणकुमार अश्वत्थामा व्यथित नहीं हुआ। तदनन्तर द्रोणकुमार ने हंसते हुए-से वज्रास्त्र को प्रकट किया। उस अस्त्र का आघात होते ही वह पर्वतराज तत्काल अदृश्य हो गया।
तत्पश्चात् वह आकाश में इन्द्रधनूषसहित अत्यन्त भयंकल नील मेघ बनकर पत्थरों की वर्षा से रणभूमि में अश्वत्थामा को आच्छादित करने लगा। तब अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ द्रोणकुमार ने वायव्यास्त्र का संधान करके वहां प्रकट हुए नील मेघ को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात् अश्वत्थामा ने देखा कि घटोत्कच बिना किसी घबराहट के बहुत-से राक्षसों से घिरा हुआ पुनः रथपर आरूढ होकर आ रहा है। उसने अपने धनुष को खींचकर फैला रक्खा है। उसके साथ सिंह, व्याघ्र और मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी तथा विकराल मुख, मस्तक और कण्ठ वाले बहुत-से अनुचर हैं, जो हाथी, घोडों तथा रथपर बैठे हुए हैं। उसके अनुचरों में राक्षस, यातुधान तथा तामस जाति के लोग हैं, जिनका पराक्रम इन्द्र के समान हैं। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करनेवाले, भांति-भांति के कवच और आभूषणों से विभूषित, महाबली, भयंकर सिंहनाद करनेवाले तथा क्रोध से घूरते हुए नेत्रों वाले बहुसंख्यक रणदुर्मद राक्षस घटोत्कच की ओर से युद्ध के लिये उपस्थित हैं। यह सब देखकर दुर्योधन विषादग्रस्त हो रहा है। इन सब बातों पर दृष्टिपात करके अश्वत्थामा ने आपके पुत्र से कहा-। ’दुर्योधन ! आज तुम चुपचाप खडे रहो। तुम्हें इन्द्र के समान पराक्रमी इन राजाओं तथा अपने वीर भाइयों के साथ तनिक भी घबराना नहीं चाहिये। ’राजन् ! मैं तुम्हारे शत्रुओं को मार डालूंगा, तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; इसके लिये मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूं। तुम अपनी सेना का आश्वासन दो ’। दुर्योधन बोला- गौतमीनन्दन ! तुम्हारा यह हदय इतना विशाल है कि तुम्हारे द्वारा इस कार्य का होना मैं अद्रुत नहीं मानता। हम लोगों पर तुम्हारा अनुराग बहुत अधिक है।
संजय कहते हैं राजन् ! अश्वत्थामा से ऐसा कहकर दुर्योधन संग्राम में शोभा पानेवाले घोडो से युक्त एक हजार रथों द्वारा घिरे हुए शकुनि से इस प्रकार बोला।
« पीछे | आगे » |