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गीता-प्रबंध
12.यज्ञ-रहस्य

जिस विश्वशक्ति में कर्म की आहुति दी जाती है वह स्वयं भगवान् हैं; आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भगवान् हैं; यज्ञ के द्वारा गंतव्य स्थान भी भगवान् ही हैं। जिस मनुष्य को यह ज्ञान है और जो इसी ज्ञान में रहता और कर्म करता है उसके लिये कोई कर्म बंधन नहीं बन सकता, उसका कोई कर्म वैयाक्तिक और अहंकार - प्रयुक्त नहीं होता। दिव्य पुरूष ही अपनी दिव्य प्रकृति के द्वारा अपनी सत्ता में कर्म करता है वह अपनी आत्म- चेतन विश्व - शक्ति की अग्नि में प्रत्येक पदार्थ की आहुति देता है ; और इस भगवत् - परिचालित गति और कर्म का लक्ष्य है जीव का, भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना और उनपर स्वत्व रखना। इस तत्व को जानना, इसी एकत्व - साधक चेतना में रहना और कर्म करना ही मुक्त होना है। किंतु सभी योगी इस ज्ञान तक नहीं पहुंचते । “कुछ योगी देव यज्ञ ( देवताओं के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले यज्ञ ) करते हैं; कुछ और यज्ञ को यज्ञ के द्वारा ही ब्रह्माग्नि में हवन करते हैं।”
देव यज्ञ करने वाले भगवान् की कल्पना , उनके रूपों और शक्तियों में करते हैं और विधि साधनों या धर्मो के द्वारा, अर्थात् कर्म संबंधी सुनिश्चित विधि - विधान, आत्म - संयम और उत्सृष्ट कर्म के द्वारा उन्हे ढूंडते हैं; और जो ब्रह्माग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करने वाले ज्ञानी हैं उनके लिये , यज्ञ का भाव है कि कुछ कर्म करें उसे सीधा भगवान् को अपर्ण करना , अपनी सारी वृत्तियों और इन्द्रिय - व्यापारों को एकीभूत भागवत चैतन्य और शक्ति में निक्षिप्त कर देना ही एकमात्र साधन है , एकमात्र धर्म है। यज्ञ के साधन विविध हैं , हवन भी नानाविध हैं। एक आत्म - नियंत्रण और आत्म - संयमरूप आंतरिक यज्ञ है जिससे उच्चतर आत्मवशित्व और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। “कुछ अपनी इन्द्रियों को संयमाग्नि में हवन करते हैं, कुछ दूसरे इन्द्रियाग्नि में विषयों का हवन करते हैं, कुछ समस्त इन्द्रियाकर्मों और प्राण- कर्मो का ज्ञानदीप्त आत्मसंयमयोगरूपी अग्नि में हवन अग्नि में हवन करते हैं ।” तात्पर्य , एक साधना यह है कि इन्द्रियों के विषयों का ग्रहाण तो किया जाता है , पर उस इन्द्रिय - व्यापार से मन को कोई क्षोभ नहीं होने दिया जाता , मन पर उसका कोई असर नहीं पड़ने दिया जाता, इन्द्रियां स्वयं ही विशु़द्ध यज्ञाग्नि बन जाती है। फिर यह भी एक साधना है जिसमें इन्द्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध, स्थिर और शांति रूप में मन क्रिया के परदे के भीतर से निकलकर प्रकट हो जाता है । एक साधना यह है जिससे , आत्मरूप का बोध होने पर, सब इन्द्रियकर्म और प्राणकर्म उस एक स्थिर प्रशांत आत्मा में ही ले लिये जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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