गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 123

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गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

यह अवस्था तभी आ सकती है जबकि मनुष्य यह अनुभव करे कि मेरे अंदर और दूसरों के अंदर जो आत्मा है , वह एक ही सयत है और यह असात्मा अहंकार से ऊची चीज है, यह अनंत है, नैव्र्यक्तिक है, विश्वक्तिक है, विश्वव्यापी सत्य है जिसमें सब प्राणी चलते - फिरते और जीते - जागते हैं, जब वह यह अनुभव करता है कि समस्त विश्व देवा, जिनके लिये वह इन सब यज्ञों को करता है, एक ही अनंत परमेश्वर के विभिन्न रूप है और वह उस एक परमेश्वर - संबधी अपनी मर्यादित करने वाली धारणाओं का परित्याग करके उन्हें एक अनिर्वचनीय परमदेव जानता है जो एक ही साथ सांत और अनंतम है, जो एक पुरूष है साथ ही साथ अनेक भी, प्रकृति के परे होकर भी प्रकृति के द्वारा अपने - आपको प्रकट करता है, जो त्रिगुण के बंधनों के परे होकर भी अपने अनंत गुणो के द्वारा अपनी सत्ता की शक्ति को नामरूपान्वित किया करता है। वही पुरूषोत्तम है जिन्हें यज्ञमात्र समर्पित करना होता है, किसी क्षणिक वैयक्तिक कर्मफल के लिये नहीं, बल्कि भगवान् को प्राप्त करने के लिये ताकि भगवान् के साथ समस्वरता और एकता में रहा जा सके। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की मक्ति और सिद्धि का मार्ग उत्तरोत्तर बढ़ने वाली नैव्र्यक्तिकता के द्वारा ही मिलता है। मनुष्य का यह पुरातन और सतत अनुभव है।
वह नैव्र्यक्तिक और अनंत पुरूष की और - जो विशुद्ध , ऊध्र्व और सब वस्तुओं में और सत्ताओं में एक और सम है, जो प्रकृति में नैव्र्यक्त्कि और अनंत है ,जो जीवन में नैवर्यक्तिक और अनंत है, जो उसकी अंतरंगता में नैव्र्यक्ति और अनंत है - जितना अधिक खुलता है उतना ही अहंकार तथा सांत के दायरे से कम बंधता है , और उतना ही बंधक विशालता , शांति और निर्मल आनंद का अनुभव करता है , जो अमोद, सुख और चैन उसे सांत से ही मिल जाता है या उसका अहंकार अपने ही अधिकार से प्राप्त कर सकता है , वह क्षणिक , क्षुब्द और आरक्षित होता है । अहंभाव में और उसकी संकुचित धारणाओं , शक्तियों और सुखों में ही डूबे रहना इस संसार को सदा के लिये अनित्यं असुखं बना लेना है; सांत जीवन सदा ही व्यर्थता के भाव से व्यथित रहता है और इसका मूल कारण यह है कि सांतता जीवन का समर्ग या उच्चतम सत्य नहीं है; जीवन तब तक पूर्णतया यथार्थ नहीं होता जब तक वह अनंत की भावना की और नहीं खुलता । यही कारण है कि गीता ने अपनी कर्मयोग की शिक्षा के आरंभ में ही ब्राह्मी स्थिति पर , नैव्र्यक्तिक जीवन पर इतना जोर दिया है, जो प्राचीन मुनियों की साधना का महान् लक्ष्य था। क्योंकि जिस नैव्र्यक्त्कि अनंत एक में विश्व की चिरंतन , परिवर्तनशील, नानाविध कर्मण्यताओं को स्थायित्व, सरंक्षण और शांति प्राप्त होती है वही अचल अविनाशी आत्मा, अक्षर ,ब्रह्म ही है , जो उन सबके ऊपर है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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