महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 46-52

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अषीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अषीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 46-52 का हिन्दी अनुवाद

‘महानुभाव वृत्रासुर ! प्रकृति, महत्तत्त्व, अंहकार और पंचमात्राएँ- ये आठ, तथा दूसरे साठ[१] त्तत्त्व और इनकी जो सैकड़ों वृतियाँ हैं- ये सब महातेजस्वी योगियों के मन के द्वारा अवरुद्ध की हुई होती है तथा सत्त्व,रज और तम - इन तीनों गुणों को भी वे अवरुद्ध कर देते है। अतः शुक्लवर्ण वाले (सनकादिकों के समान सिद्ध) पुरुष को उत्तम गति प्राप्त होती है, वही उन योगियों को मिलती है । ‘जो परमगति छठे (शुक्ल) वर्ण के साधक को मिलती है, उसे पाने का अधिकार भ्रष्ट करके भी जो असिद्ध हो रहा है एवं जिसके समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ऐसा योगी भी यदि योगजनित ऐश्‍वर्यके सुख भोग कर वासना का त्याग करने में असमर्थ है तो वह न चाहने पर भी एक कल्पतक अपनी साधना के फलरूप महर्, जन, तप और सत्य-इन चारों लोकों में क्रमश: निवास करता है (और कल्प के अन्त में मुक्त हो जाता है) । ‘किंतु जो भलीभाँति योग साधना में असमर्थ है, वह योग भ्रष्ट पुरुष सौ कल्पोंतक ऊपर के सात लोकों में निवास करता है। फिर बचे हुए कर्म संस्कारों के सहित वहाँ से लौटकर मनुष्य लोक में पहले से बढकर महत्त्व-सम्पन्न हो मनुष्य शरीर को पाता है । ‘तदनन्तर मनुष्य योनि से निकलकर वह उत्तरोत्तर श्रेष्ठ देवादि योनियों की ओर अग्रसर होता है एंव सातों लोकों में प्रभावशाली होकर एक कल्पतक निवास करता है । ‘फिर वह योगी भू आदि सात लोकों को विनाशशील क्षणभंगुर समझकर पुनःमनुष्य लोक में भलीभँति (शोक-मोह से रहित होकर) निवास करता है। तदनन्तर शरीर का अन्त होने पर वह अव्यय (अविनाशी या निर्विकार) एंव अनन्त (देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद से शून्य) स्थान (परब्रह्मपद) को प्राप्त होता है। वह अव्यय एंव अनन्त स्थान किसी के मत में महादेवजी का कैलासधाम है। किसी के मत में भगवान विष्णु का वैकुण्ठधाम है। किसी के मत में ब्रह्मजी का सत्यलोक है। कोई-कोई उसे भगवान शेष या अनन्त का धाम बताते है। कोई जीव का परमधाम है-ऐसा कहते हैं और कोई-कोई उसे सर्वव्यापी चिन्मय प्रकाश से युक्त परब्रह्म का स्वरूप बताते हैं । ज्ञानाग्नि के द्वारा जिनके सूक्ष्म, स्थूल और कारण-शरीर दग्ध हो गये हैं, वे प्रजाजन अर्थात योगीलोक प्रलयकाल में सदा परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं एवं जो ब्रह्मलोक से नीचे के लोकों में रहने वाले साधनशील दैवी प्रकृति से समपन्न साधक हैं, वे सब परब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं । ‘प्रलयकाल में जो जीव देवभावको प्राप्त थे, वे यदि अपने सम्पूर्ण कर्म फलों का उपभोग समाप्त करने से पहले ही लय को प्राप्त हो जाते हैं तो कल्पान्तर में पुनः प्रजा की सृष्टि होने पर वे शेष फल का उपभोग करनें के लिये उन्हीं स्थानों को प्राप्त होते हैं, जो उन्हें पूर्वकल्प में प्राप्त थे; किंतु जो कल्पान्त में उस योनि सम्‍बन्धी कर्मफल-भोग को पूर्ण कर चुके हैं, वे स्वर्गलोक का नाश हो जाने पर दूसरे कल्प में उनके जैसे कर्म हैं, उसी के सदृश अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य योनि को ही प्राप्त होते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रिय- ये दस इन्द्रियाँ सात्त्चिक, राजसिक तथा जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति के भेद से प्रत्‍येक छ:-छ: प्रकार की होती हैं। इस प्रकार इनके साठ भेद हो जाते हैं।

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