गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 309

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:१०, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म,...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म , भक्ति और ज्ञान

इस प्रकार आत्मा के अंदर बुद्धि , हृदय और संकल्पक मन का समन्वय होता है और उसके साथ इस पूर्ण मिलन में , इस सर्वागीण भगवत्साक्षात्कार में, इस भागवत योग में ज्ञान , भक्ति और कर्म का समन्वय होता है । परंतु किसी भी रूप से इस स्थिति को प्राप्त होना अहंबद्ध प्रकृति के लिये कठिन है । और इस स्थिति की विजयशालिनी और सर्वांगण और सुसंगत पूर्णता को प्राप्त करना तो , तब भी सुगम नहीं होता जब हम अंतत: एकमेव निश्चय के साथ तथा सदा के लिये इस मार्ग पर पैर रखते हैं । मत्र्य मानस अज्ञानवश आवरणों और बाहरी दिखावों का जो भरोसा किया करता है उससे मूढ़ बन जाता है ; वह केवल बाह्म मानव शरीर , मानव अंतःकरण , मानव - पद्धति ही देखता है और उन भगवान् की , जो प्रत्येक प्राणी में निवास करते हैं , कोई ऐसी झलक नहीं पाता जिससे वह इस अज्ञान और मोह से मुक्त हो सके । उसके अपने अंदर जो भगवत्तत्व है उसीकी वह उपेक्षा , अवज्ञा करता है और दूसरों के अंदर उसे नहीं देख पाता , और मनुष्य में अवतार और विभूति के रूप से भगवान् के आविर्भूत होते हुए भी वह अंध ही बना रहता और छिपे हुए भगवान् की अवहैलना या तिरस्कार करता है । और , जब वह जीवित प्राणी के अंदर भगवान की ऐसी उपेक्षा करता है तब उस बाह्म जगत में तो वह उन्हें क्या देखेगा जिसे वह अपने पृथक्कर अहंकार की कैद के कारण परिसीमित मन - बुद्धि के बंद झरोखों से देखा करता है ।
वह ईश्वर को जगत् में नहीं देखता ; उन परमेश्वर को वह कुछ भी नहीं जानता जो इन सब विविध प्राणियों और पदार्थो से परिपूर्ण नानाविध लोकों के स्वामी हैं और इन सब लोकों के सब भूतों में निवास करते हैं ; उसकी अंधी आंखें उस प्रकाश को नहीं देख पातीं जिससे संसार में जो कुछ है सब भगवद्भाव की ओर उन्नत होता है और पुरूष स्वयं अपनी अंतःस्थ भगवत्ता में जाग उठता और भगवदीय तथा भगवत्सदृश होता है । जिस चीज को वह जैसे ही देखता , उसी पर लपक कर उसमें आसक्त होता है , वही चीज है अहंभाव का जीवन - सांत वस्तुओं का पीछा , उन्हीं विषयों की प्राप्ति के लिये और मन - बुद्धि , शरीर तथा इन्द्रियों की पार्थिव लालसामय तृप्ति के लिये । जो लोग मन के इस बहिर्मुखी प्रवाह में अपने - आपको बेतरह झोंक देते हैं वे निम्न प्रकृति के हाथों में जा गिरते , उसीसे चिपके रहते और उसीको अपनी आधारभूमि बना लेते हैं । मनुष्य के अंदर जो राक्षसी प्रकृति है वे उसके शिकार होते हैं । इस प्रकृति के वश में रहने वाला मनुष्य हर चीज को अपने पृथक् प्राणमय अहंकर की अत्युग्र और अदम्य भोग - लालसा पर न्योछावर कर देता है ओर उस राक्षस को ही अपने मन , बुद्धि , कर्म और भोग का तमोमय ईश्वर बना लेता है । अथवा वे आसुरी प्रकृति की अहंमन्य स्वेच्छा , स्वतःसंतुष्ट विचार , स्वार्थाध कर्म स्वतःसंतुष्ट पर फिर भी सदा असंतुष्ट रहने वाली बौद्धिक भावापन्न भोग - तृष्णा के द्वारा व्यर्थ के चक्कर में झोंक दिये जाते हैं ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध