महाभारत वन पर्व अध्याय 146 श्लोक 64-85

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:२३, १६ अगस्त २०१५ का अवतरण ('== षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थया...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 64-85 का हिन्दी अनुवाद

भारत! उन सिंहोको दहाड़ना सुनकर भयसे ड़रे हुए हाथी भी चीत्कार करने लगे, जिससे वह विशाल पर्वत शब्दायमान हो उठा। बड़े-बड़े गजराजोंका वह चीत्कार सुनकर कपिप्रवर हनुमान् जी, जो उस समय कदलीवनमें ही रहते थे, यह समझ गये कि मेरे भाई भीमसेन इधर आये हैं। तब उन्होंने भीमसेनके हितके लिये स्वर्गकी ओर जानेवाला मार्ग रोक दिया। हनुमान् जीने यह सोचकर कि भीमसेन इसी मार्गसे स्वर्गलोककी ओर न चले जायं, एक मनुष्यके आने-जाने योग्य उस संकुचित मार्गपर बैठ गये। वह मार्ग केलेके वृक्षोंके घिरा होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। उन्होंने अपने भाई भीमकी रक्षाके लिये ही यह राह रोकी थी। कदलीवनमें आये हुए पाण्डुनन्दन भीमसेनको इस मार्गपर आनेके कारण किसीसे शाप या तिरस्कार न प्राप्त हो जाय, यह विचारकर ही कपिप्रवर हनुमान् जी उस वनके भीतर स्वर्गका रास्ता रोककर सो गये। उस समय उन्होंने अपने शरीरको बड़ा कर लिया था। निद्राके वशीभूत होकर जब वे जमाई लेते और इन्द्रकी ध्वजाके वशीभूत होकर तथा विशाल लंगूरको फटकारते, उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके समान आवाज होती थी। वह पर्वत उनकी पूंछकी फटकारके उस महान् शब्दको सुन्दर कन्दरारूपी मुखोंद्वारा सब ओर प्रतिध्वनि रूपमें दुहराता था, मानो कोई सांड़ जोर-जोरसे गर्जना कर रहा हो। पूंछके फटकारनेकी आवाजसे वह महान् पर्वत हिल उठा। उसके शिखर झूमते-हुए जाने पड़े और वह सब ओरसे टूट-फूटकर बिखरने लगा। वह शब्द मतवाले हाथीके चिग्घाड़नेकी आवाजको भी दबाकर विचित्र पर्वत-शिखरोंपर चारों ओर फैल गया। उसे सुनकर भीमसेनके रोंगटे खड़े हो गये और उसके कारणको ढूंढ़ने लिये वे उस केलेके बगीचेमें घूमने लगे। उस समय विशाल भुजाओंवाले भीमसेनने कदली-वनके भीतरही एक मोटे शिलाखण्डपर लेटे हुए वानरराज हनुमान् जीको देखा। विद्युत्पातके समान चकाचैंध पैदा करनेके कारण उनकी ओर देखना अयन्त कठिन हो रहा था। उनकी अंकान्ति गिरती हुए बिजलीके समान पिंगल-वर्णकी थी। उनका गर्जन-तर्जन वज्रपातकी गड़-गड़ाहट के समान था। वे विद्युत्पातके संदृश चंचल प्रतीत होते थे। उनके कंधे चौड़े और पुष्ट थे। अतः उन्होंने बांहके मूलभागको तकिया बनाकर उसीपर अपनी मोटी और छोटी ग्रीवाको रख छोड़ा था और उनकेशरीरका मध्यभाग एवं कटिप्रदेश पतला था। उनकी लंबी पूंछका अग्रभाग कुछ मुड़ा हुआ था। उसकी रोमावलि घनी थी तथा वह पूंछ उपरकी ओर उठकर फहराती हुई ध्वजा-सी सुशोभित होती थी। उनके ओठ छोटे थे। जीभ और मुखका रंग तांबेके समान थे। कान भी लाल रंगके ही थे और भौंहें चंचल हो रहीं थी। उनके खुले हुए मुखमें श्‍वेत चमकते हुए दांत और दाढ़े अपेन सफेद और तीखे अग्रभागके द्वारा अत्यन्त शोभा पा रहीं थी। इन सबके कारण उनका मुख किरणोंसे प्रकाशित चन्द्रमाके समान दिखायी देता था। मुखके भीतरकी श्वेत दन्तावलि उसकी शोभा बढ़ानेके लिये आभूषणका काम दे रही थी। सुवर्णमय कदली-वृक्षों के बीच विराजमान महातेजस्वी हनुमान् जी ऐसे जान पड़ते थे, मानो केसरोंकी क्यारीमें अशोकपुष्पोंका गुच्छ रख दिया गया हो। वे शत्रुसूदन वानरवीर अपने कान्तिमान् शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ते थे और अपनी मधुके समान पीली आंखोंसे इधर-उधर देख रहे थे।। परम बुद्धिमान् बलवान् महाबाहु भीमसेन उस महान् वनमें विशालकाय महाबली वानरराज हनुमान् जीको अकेले ही स्वर्गका मार्ग रोककर हिमालयके समान स्थित देख निर्भय होकर वेगपूर्वक उनके पास गये और वज्र-गर्जनाके समान भयंकर सिंहनाद करने लगे। भीमसेनके उस सिंहनादसे वहांके मृग और पक्षी थर्रा उठे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।