महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 186 श्लोक 1-21
षडशीत्यधिकशततम (186) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
अम्बा की कठोर तपस्या
परशुराम बोले- भाविनी! यह सब लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने (तेरे लिये) पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया और महान् पुरूषार्थ दिखाया है परंतु इस प्रकार उत्तमोत्तम अस्त्र प्रकट करके भी मैं शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म से अपनी अधिक विशिष्टता नहीं दिखा सका । मेरी अधिक-से-अधिक शक्ति, अधिक-से-अधिक बल इतना ही है। भद्रे! अब तेरी जहां इच्छा हो, चली जा, अथवा बता, तेरा दूसरा कौन-सा कार्य सिद्ध करूं? । अब तू भीष्म की ही शरण ले। तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं हैं; क्योंकि महान् अस्त्रों का प्रयोग करके भीष्म ने मुझे जीत लिया है ।ऐसा कहकर महामना परशुराम लंबी सांस खींचते हुए मौन हो गये। तब राजकन्या अम्बा ने उन भृगुनन्दन से कहा- । ‘भगवन्! आपका कहना ठीक हैं। वास्तव में ये उदारबुद्धि भीष्म युद्ध में देवताओं के लिये भी अजेय हैं ।‘आपने अपनी पूरी शक्ति लगाकर पूर्ण उत्साह के साथ मेरा कार्य किया हैं। युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाया है, जिसे भीष्म के सिवा दूसरा कोई रोक नहीं सकता था। इसी प्रकार आपने नाना प्रकार के दिव्यास्त्र भी प्रकट किये हैं । ‘परंतु अन्ततोगत्वा आप युद्ध में उनकी अपेक्षाअपनी विशेष्यता स्थापित न कर सके। मैं भी अब किसी प्रकार पुन: भीष्म के पास नहीं जाऊंगी ‘भृगुश्रेष्ठ तपोधन! अब मैं वहीं जाऊंगी, जहां ऐसा बन सकूं कि समरभूमि में स्वयं ही भीष्म को मार गिराऊं’। ऐसा कहकर रोषभरे नेत्रों वाली वह राजकन्या मेरे वध के उपाय का चिन्तन करती हुई तपस्या के लिये दृढ़ संकल्प लेकर वहां से चली गयी । भारत! तदनन्तर भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी उन महर्षियों के साथ मुझ से विदा ले जैसे आये थे, वैसे ही महेन्द्र पर्वत पर चले गये ।महाराज! तत्पश्चात् मैंने भी ब्राह्मण के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते हुए रथ पर आरूढ़ हो हस्तिनापुर में आकर माता सत्यवती से सब समाचार यथार्थ रूप से निवेदन किया। माता ने भी मेरा अभिनन्दन किया। इसके बाद मैंने कुछ बुद्धिमान् पुरूषों को उस कन्या के वृत्तान्त का पता लगाने के कार्य में नियुक्त कर दिया । मेरे लगाये हुए गुप्तचर सदा मेरे प्रिय एवं हित में संलग्न रहने वाले थे। वे प्रतिदिन उस कन्या की गतिविधि, बोलचाल और चेष्टा का समाचार मेरे पास पहुंचाया करते थे । जिस दिन वह कन्या तपस्या का निश्चय करके वन में गयी, उसी दिन मैं व्यथित, दीन और अचेत-सा हो गया । तात! जो तपस्या के द्वारा कठोर व्रत का पालन करने वाले हैं, उन ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण परशुरामजी को छोड़कर कोई भी क्षत्रिय अब तक युद्ध में पराजित नहीं कर सका हैं । राजन्! मैंने यह वृत्तान्त देवर्षि नारद और महर्षि व्यास ने भी निवेदन किया था। उस समय उन दोनों ने मुझसे कहा- ‘भीष्म! तुम्हें काशिराज की कन्या के विषय में तनिक भी विषाद नही करना चाहिये। दैव के विधान को पुरूषार्थ के द्वारा कौन टाल सकता है?’ । महाराज! फिर उस कन्या ने आश्रममण्डल में पहूंचकर यमुना के तट का आश्रय ले ऐसी कठोर तपस्या की, जो मानवीय शक्ति से परे हैं ।उसने भोजन छोड़ दिया, वह दुबली तथा रूक्ष हो गयी। सिर पर केशों की जटा बन गयी। शरीर में मैल और कीचड़ जम गयी। वह तपोधना कन्या छ: महीनों तक केवल वायु पीकर ठुंठे काठ की भांति निश्र्वल भाव से खड़ी रही । फिर एक वर्ष तक यमुनाजी के जल में घुसकर बिना कुछ खाये-पीये वह भाविनी राजकन्या जल में ही रहकर तपस्या करती रही ।
« पीछे | आगे » |