महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 186 श्लोक 22-41

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षडशीत्यधिकशततम (186) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षडशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्‍चात् तीव्र क्रोध से युक्त हुई अम्बा ने पैर के अंगूठे के अग्रभाग पर खड़ी हो अपने-आप झड़कर गिरा हुआ केवल एक सूखा पत्ता खाकर एक वर्ष व्यतीत किया इस प्रकार बारह वर्षों तक कठोर तपस्या में संलग्न हो उसने पृथ्‍वी और आकाश को संतप्त कर दिया। उसके जातिवालों ने आकर उसे उस कठोर व्रत से निवृत्त करने की चेष्‍टा की; परंतु उन्हें सफलता न मिल सकी । तदनन्तर वह सिद्धों और चरणों द्वारा सेवित वत्स देश की भूमि में गयी और वहां पुण्‍यशील तपस्वी महात्माओं के आश्रमों में विचरने लगी। काशिराज की वह कन्या दिन-रात वहां के पुण्‍य तीर्थों में स्नान करती और अपनी इच्छा के अनुसार सर्वत्र विचरती रहती थी । महाराज! शुभकारक नन्दाश्रम, उलूकाश्रम च्यवनाश्रम, ब्रह्मस्थान, देवताओं के यज्ञस्थान प्रयाग, देवराण्‍य, भोगवती, कौशिकाश्रम, माण्‍डव्याश्रम, दिलीपाश्रम, रामहृद और पैलगर्गाश्रम-क्रमश: इन सभी तीर्थों में उन दिनों काशिराज की कन्या ने कठोर व्रत का आश्रय ले स्नान किया । कुरूनन्दन! उस समय मेरी माता गङ्गा ने जल में प्रकट होकर अम्बा से कहा- ‘भद्रे! तू किसलिये शरीर को इतना क्लेश देती हैं। मुझे ठीक-ठीक बता’ । राजन्! तब साध्‍वी अम्बा ने हाथ जोड़कर गङ्गाजी कहा- ‘चारूलोचने! भीष्‍म ने युद्ध में परशुरामजी को परास्त कर दिया; फिर दूसरा कौन ऐसा राजा है, जो धनुष-बाण लेकर खडे़ हुए भीष्‍म को युद्ध में परास्त कर सके? अत: मैं भीष्‍म के विनाश के लिये अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही हुं । ‘देवि! मैं इस भूतलपर विभिन्न तीर्थों में इसलिये विचर रही हुं कि योग्य बनकर मैं स्वयं ही भीष्‍म को मार सकू। भगवति! इस जगत् में मेरे व्रत और तपस्या का यही सर्वोत्तम फल है, जैसा मैंने आपको बताया है’ । तू कुटिल आचरण कर रही है। सुन्दर अङ्गोंवाली अबले! तेरा यह मनोरथ कभी पूर्ण नहीं हो सकता ।‘काशिराजकन्ये! यदि भीष्‍म के विनाश के लिये तू प्रयत्न कर रही है और व्रत में स्थित रहकर ही यदि तू अपना शरीर छोडे़गी तो शुभे! तुझे टेढी़-मेढी़ नही होना पडे़गा। केवल बरसात में ही तेरे भीतर जल दिखायी देगा। तेरे भीतर तीर्थ या स्नान की सूविधा बड़ी कठिनाई से होगी। तू केवल बरसात की नदी समझी जायगी। शेष आठ महीनों में तेरा पता नहीं लगेगा ।‘बरसात में भी भयंकर ग्राहों से भरी रहने के कारण तू समस्त प्राणियों के लिये अत्यन्त भयंकर और घोरस्वरूपा बनी रहेगी।’ राजन्! काशिराज की कन्या से ऐसा कहकर मेरी परम सौभाग्यशालिनी माता गङ्गा देवी मुसकराती हुई लौट गयीं। तदनन्तर वह सुन्दरी कन्या पुन: कठोर तपस्या में प्रवृत्त हो कभी आठवें और कभी दसवें महीने तक जल भी नहीं पीती थी । कुरूनन्दन! काशिराज की वह कन्या तीर्थ सेवन के लोभ से वत्सदेश की भूमि पर इधर-उधर दौड़ती फिरती थी । भारत! कुछ काल के पश्‍चात् वह वत्सदेश की भूमि में अम्बा नाम से प्रसिद्ध नदी हुई, जो केवल बरसात में जल से भरी रहती थी। उसमें बहुत-से ग्राह निवास करते थे। उसके भीतर उतरना और स्नान आदि तीर्थकृत्यों का सम्पादन बहुत ही कठिन था। वह नदी टेढी़-मेढी़ होकर बहती थी राजन्! राजकन्या अम्बा उस तपस्या के प्रभाव से आधे शरीर से तो अम्बा नाम की नदी हो गयी और आधे अङ्ग से वत्यदेश में ही एक कन्या होकर प्रकट हुई ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में अम्बा की तपस्याविषयक एक सौ छियासीवां अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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