गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 300
विश्वप्रकृति में प्रकट भगवान के नाते वे प्रकृति के साथ तदाकार होर कर्म करते हैं। वहां वे स्वयं प्रकृति हैं ऐसा कह सकते हैं , पर प्रकृति की सारी क्रियाओं के अंदर उन्हींकी वह आत्मशक्ति होती है जो पहले से देखती और पहले से संकल्प करती है , समझती और प्रवृत्त करती है , प्रकृति को विवश कर उससे कर्म कराती है और फिर फल का विधान करती है। सबकी एकमेव निष्क्रिय शांत आत्मा के नाते वे अकर्ता हैं , केवल प्रकृति ही कन्नीं है । इन सारे कर्मो को जीवों के स्वभाव के अनुसार करना वे प्रकृति पर छोड़ देते हैं , फिर भी वे प्रभु हैं , क्योंकि वे हमारे कार्यों को देखते और धारण करते हैं तथा अपनी मौन अनुमति से प्रकृति को कर्म करने में समर्थ बनाते हैं । वे अपनी अक्षरता से परमेश्वर की शक्ति को अपनी व्यापक अचल सत्ता में से प्रकृति तक पहुंचते हैं और अपने साक्षि - स्वरूप की सर्वत्र सम दृष्टि से उसके कार्यों को आश्रय देते हैं । विश्वातीत परम पुरूष परमेश्वर के नाते वे सबके आरंभ करने वाले हैं ; सबके उपर हैं , सबको प्रकट होने के लिये विवश करते हैं , पर जो कुछ रचते हैं उसमें अपने - आपको खो नहीं देते ओर न अपनी प्रकति के कर्मो में आसक्त ही होते हैं ।
उन्हींका सर्वोपरि सर्वसंचालक संकल्प प्राकृत कर्ममात्र के सब कारणें में मूल कारण है । व्यष्टि पुरूष में अज्ञान की अवस्था में वे वही अंतःस्थित निगूढ़ ईश्वर हैं जो हम सब लोगों को प्रकृति के यंत्र पर घुमाया करते हैं । इस यंत्र के साथ यंत्र के एक पुरजे के तौर पर हमारा अहंकार घूमा करता है , यह अहंकार प्रकृति के इस चक्र में बाधक और साधक दोनों ही एक साथ हुआ करता है । प्रत्येक जीव में रहने वाले ये भगवान समग्र भगवान् ही होते हैं , इसलिये हम अज्ञान की दशा को पार करके इस संबंध के ऊपर उठ सकते हैं । कारण हम अपने - आपको सर्वभूतस्थित एकमेव अद्वितीय आत्मा के साथ तदू्रप कर साक्षी और अकर्ता बन सकते हैं । अथवा हम अपने व्यष्टि - पुरूष को अपने अंतःस्थत परम पुरूष परमेश्वर के साथ मानव - आत्मा को जो संबंध है उस संबंध से युक्त कर सकते हैं और उसे उसकी प्रकृति के सब अंशों में उन परमेश्वर के कार्य का निमित्त ( निमित्त कारण और करण) तथा उसकी परा आत्मसत्ता और पुरूष - सत्ता में उसे उन आंतरिक विध के परम , स्वतंत्र और अनासक्त प्रभुत्व का एक महान भागी बना सकते हैं । हमें इस बात को गीता में स्पष्टतया देखना होगा ; एक ही सत्य के ये जो विभिन्न भाव संबंध - भेद और तज्जन्य प्रयोग - भेद से हुआ करते हैं , इनके लिये अपने विचार में अवकाश रखना होगा। अन्यथा हमें परस्पर - विरोध और विसंगति ही दीख पड़ेगी जहां कोई परस्पर - विरोध या विसंगति नहीं है अथवा अर्जुन की तरह हमें भी ये सब वचन एक पहैली - से मालूम होंगे और हमारी बुद्धि चकरा जायेगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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