गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 300

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

विश्वप्रकृति में प्रकट भगवान के नाते वे प्रकृति के साथ तदाकार होर कर्म करते हैं। वहां वे स्वयं प्रकृति हैं ऐसा कह सकते हैं , पर प्रकृति की सारी क्रियाओं के अंदर उन्हींकी वह आत्मशक्ति होती है जो पहले से देखती और पहले से संकल्प करती है , समझती और प्रवृत्त करती है , प्रकृति को विवश कर उससे कर्म कराती है और फिर फल का विधान करती है। सबकी एकमेव निष्क्रिय शांत आत्मा के नाते वे अकर्ता हैं , केवल प्रकृति ही कन्नीं है । इन सारे कर्मो को जीवों के स्वभाव के अनुसार करना वे प्रकृति पर छोड़ देते हैं , फिर भी वे प्रभु हैं , क्योंकि वे हमारे कार्यों को देखते और धारण करते हैं तथा अपनी मौन अनुमति से प्रकृति को कर्म करने में समर्थ बनाते हैं । वे अपनी अक्षरता से परमेश्वर की शक्ति को अपनी व्यापक अचल सत्ता में से प्रकृति तक पहुंचते हैं और अपने साक्षि - स्वरूप की सर्वत्र सम दृष्टि से उसके कार्यों को आश्रय देते हैं । विश्वातीत परम पुरूष परमेश्वर के नाते वे सबके आरंभ करने वाले हैं ; सबके उपर हैं , सबको प्रकट होने के लिये विवश करते हैं , पर जो कुछ रचते हैं उसमें अपने - आपको खो नहीं देते ओर न अपनी प्रकति के कर्मो में आसक्त ही होते हैं ।
उन्हींका सर्वोपरि सर्वसंचालक संकल्प प्राकृत कर्ममात्र के सब कारणें में मूल कारण है । व्यष्टि पुरूष में अज्ञान की अवस्था में वे वही अंतःस्थित निगूढ़ ईश्वर हैं जो हम सब लोगों को प्रकृति के यंत्र पर घुमाया करते हैं । इस यंत्र के साथ यंत्र के एक पुरजे के तौर पर हमारा अहंकार घूमा करता है , यह अहंकार प्रकृति के इस चक्र में बाधक और साधक दोनों ही एक साथ हुआ करता है । प्रत्येक जीव में रहने वाले ये भगवान समग्र भगवान् ही होते हैं , इसलिये हम अज्ञान की दशा को पार करके इस संबंध के ऊपर उठ सकते हैं । कारण हम अपने - आपको सर्वभूतस्थित एकमेव अद्वितीय आत्मा के साथ तदू्रप कर साक्षी और अकर्ता बन सकते हैं । अथवा हम अपने व्यष्टि - पुरूष को अपने अंतःस्थत परम पुरूष परमेश्वर के साथ मानव - आत्मा को जो संबंध है उस संबंध से युक्त कर सकते हैं और उसे उसकी प्रकृति के सब अंशों में उन परमेश्वर के कार्य का निमित्त ( निमित्त कारण और करण) तथा उसकी परा आत्मसत्ता और पुरूष - सत्ता में उसे उन आंतरिक विध के परम , स्वतंत्र और अनासक्त प्रभुत्व का एक महान भागी बना सकते हैं । हमें इस बात को गीता में स्पष्टतया देखना होगा ; एक ही सत्य के ये जो विभिन्न भाव संबंध - भेद और तज्जन्य प्रयोग - भेद से हुआ करते हैं , इनके लिये अपने विचार में अवकाश रखना होगा। अन्यथा हमें परस्पर - विरोध और विसंगति ही दीख पड़ेगी जहां कोई परस्पर - विरोध या विसंगति नहीं है अथवा अर्जुन की तरह हमें भी ये सब वचन एक पहैली - से मालूम होंगे और हमारी बुद्धि चकरा जायेगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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