महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-18
शततम (100) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
शान्तनु के रुप, गुण और सदाचार की प्रशंसा, गंगाजी के द्वारा सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति तथा देवव्रत की भीष्म–प्रतिज्ञा
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा शान्तनु बड़े बुद्धिमान् थे; देवता तथा राजर्षि भी उनका सत्कार करते थे। वे धर्मात्मा नरेश सम्पूर्ण जगत् में सत्यवादी के रुप में विख्यात थे। उन महाबली नरश्रेष्ठ शान्तनु में इन्द्रिय संयम, दान, क्षमा, बुद्धि, लज्जा, धैर्य तथा उत्तम तेज आदि सद्गुण सदा विद्यमान थे। इस प्रकार उत्तम गुणों से सम्पन्न एवं धर्म और अर्थ के साधन में कुशल राजा शान्तनु भरत-वंश का पालन तथा सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करते थे। उनकी ग्रीवा शंक के समान शोभा पाती थी। कंधे विशाल थे। वे मतवाले हाथी के समान पराक्रमी थे। उनमें सभी राजोचित शुभलक्षण पूर्ण सार्थक होकर निवास करते थे। उन यशस्वी महाराज के धर्मपूर्ण सदाचार को देखकर सब मनुष्य सदा इसी निश्चय पर पहुंचे थे कि काम और अर्थ से धर्म ही श्रेष्ठ है। महान् शक्तिशाली पुरुष श्रेष्ठ शान्तनु में ये सभी सद्गुण विद्यमान थे। उनके समान धर्मपूर्वक शासन करने वाला दूसरा कोई राजा नहीं था। वे धर्म में सदा रहने वाले और सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे; अत: समस्त राजाओं ने मिलकर राजा शान्तनु को राजराजेश्वर (सम्राट) के पद पर अभिषिक्त कर दिया। जनमेजय ! जब सब राजाओं ने शान्तनु को अपना स्वामी तथा रक्षक बना लिया, तब किसको शोक, भय और मानसिक संताप नहीं रहा। सब लोग सुख से सोने और जागने लगे। इन्द्र के समान तेजस्वी और कीर्तिशाली शान्तनु के शासन में रहकर अन्य राजा लोग भी दान और यज्ञ कर्मों में स्वभावत: प्रवृत होने लगे। उस समय शान्तनु प्रधान राजाओं द्वारा सुरक्षित जगत् में सभी वर्णों के लोग नियमपूर्वक प्रत्येक बर्ताव में धर्म को ही प्रधानता देने लगे। क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों की सेवा करते, वैश्य, ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुरक्त रहते तथा शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुराग रखते हुए वैश्यों की सेवा में तत्पर रहते थे। महाराज शान्तनु कुरुवंश की रमणीय राजधानी हस्तिनापुर में निवास करते हुए समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासन और पालन करते थे। वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी, धर्मज्ञ, सत्यवादी तथा सरल थे। दान, धर्म और तपस्या तीनों के योग से उनमें दिव्य कान्ति की वृद्धि हो रही थी। उनमें न राग था न द्वेष। चन्द्रमा की भांति उनका दर्शन सबको प्यारा लगता था। वे तेज से सूर्य और वेग से वायु के सामन जान पड़ते थे; क्रोध में यमराज और क्षमा में पृथ्वी की समानता करते थे। जनमेजय ! महाराज शान्तनु के इस पृथ्वी का पालन करते समय पशुओं, वराहों, मृगों तथा पक्षियों का वध नहीं होता था। उनके राज्य में ब्रह्म और धर्म की प्रधानता थी। महाराज शान्तनु बड़े विनयशील तथा काम-राग आदि दोषों से दूर रहने वाले थे। वे सब प्राणियों का समान भाव से शासन करते थे। उन दिनों देवयज्ञ, ॠषियज्ञ तथा पितृयज्ञ के लिये कर्मों का आरम्भ होता था। अधर्म का भय होने के कारण किसी भी प्राणी का वध नहीं किया जाता था। दुखों, अनाथ एवं पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए जीव- इन सब प्राणियों का वे राजा शान्तनु ही पिता के सामन पालन करते थे।
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