महाभारत आदि पर्व अध्याय 127 श्लोक 40-58
>सप्तविंशत्यधिकशततम (127) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
वह उद्यान राजाओं की गोष्ठी और बैठक के स्थानों से, श्वेत वर्ण के छज्जों से, जालियों और झरोखों से तथा इधर-उधर ले जाने योग्य जलवर्षक यन्त्रों से सुशोभित हो रहा था। महल बनाने वाले शिल्पियों ने उस उद्यान एवं क्रीडाभवन को झाड़-पोंछकर साफ कर दिया था। चित्रकारों ने वहां चित्रकारी की थी। जल से भरी बाबलियों तथा तालाबों द्वारा उसकी बड़ी शोभा हो रही थी ।खिले हुए कमलों से आच्छादित वहां का जल बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। ॠतु के अनुकूल खिलकर झड़े हएु फूलों से वहां की सारी पृथ्वी ढंक गयी थी । वहां पहुंचकर समस्त कौरव और पाण्डव यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये और स्वत: प्राप्त हुए नाना प्रकार के भोगों का उपभोग करने लगे । तदनन्तर उस सुन्दर उद्यान में क्रीडा के लिये आये हुए कौरव और पाण्डव एक-दूसरे के मुंह से खाने की वस्तुऐं डालने लगे । उस समय पापी दुर्योधन ने भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनके भोजन में कालकूट नामक विष डलवा दिया । उस पापात्मा का हृदय छूरे के समान तीखा था; परंतु बातें वह ऐसी करता था, मानो उनसे अमृत झरता रहा हो। वह सगे भाई और हितैषी सुहृद् की भांति स्वयं भीमसेन के लिये भांति-भांति के भक्ष्य पदार्थ परोसने लगा। भीमसेन भोजन के दोष से अपरिचित थे; अत: दुर्योधन ने जितना परोसा, वह सब-का-सब खा गये। यह देख नीच दुर्योधन मन-ही-मन हंसता हुआ-सा अपने-आप को कृतार्थ मानने लगा । तब भोजन के पश्चात् पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र सभी प्रसन्नचित्त हो एक साथ जल-क्रीडा करने लगे । जल-क्रीडा का समाप्त होने पर दिन के अन्त में विहार से थके हुए वे समस्त कुरुश्रेष्ठ वीर शुद्ध वस्त्र धारण कर सुन्दर आभूषणों से विभूषित हो उन क्रीडा भवनों में ही रात बिताने का विचार करेन लगे। बलवान् भीमसेन उस समय अधिक परिश्रम करने के कारण बहुत थक गये थे । वे जलक्रीड़ा के लिये आये हुए उन कुमारों को साथ लेकर विश्राम करने की इच्छा से प्रमाण कोटि के उस गृह में आये और वहीं एक स्थान में सो गये । पाण्डुनन्दन भीम थके तो थे ही, विष के मद से भी अचेत हो रहे थे। उनके अंग-अंग में विष का प्रभाव फैल गया था। अत: वहां ठंडी हवा पाकर ऐसे सोये कि जड़ के समान निश्चेष्ट प्रतीत होने लगे । तब दुर्योधन ने स्वयं लताओं के पाश में वीरवर भीम को कसकर बांधा। वे मुर्दे के समान हो रहे थे। फिर उसने गंगाजी के ऊंचे तट से उन्हें जल में ढकेल दिया । भीमसेन बेहोशी की दशा में जल के भीतर डूबकर नागलोक में जा पहुंचे। उस समय कितने ही नाग कुमार उनके शरीर से दब गये। तब बहुत-से महाविषधर नागों ने मिलकर अपनी भयंकर विष वाली बड़ी-बड़ी दाढ़ों से भीमसेन को खूब डंसा । उनके द्वारा डंसे जाने से कालकूट विष का प्रभाव नष्ट हो गया। सर्पों के जंगम विष ने खाये हुए स्थावर विष को हर लिया । चौड़ी छाती वाले भीमसेन की त्वचा लोहे के समान कठोर थी; अत: यद्यपि उनके मर्म स्थानों में सर्पों ने दांत गड़ाये थे, तो भी वे उनकी त्वचा को भेद न सके ।
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