महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 54-68

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एकोनसप्‍तधिकशततम (169) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनसप्‍तधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 54-68 का हिन्दी अनुवाद

गन्‍धर्व-देश के घोड़ो की यह विशेषता है कि वे इच्‍छानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। सवार की इच्‍छा के अनुसार अपने वेग को घटा-बढ़ा सकते हैं। जब आवश्‍यकता या इच्‍छा हो, तभी वे उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे गन्‍धर्व-देशीय घोड़े आपकी इच्‍छा पूर्ण करते रहेंगे।

अर्जुन ने कहा- गन्‍धर्व ! यदि तुमने प्रसन्‍न होकर अथवा प्राणसंकट से बचाने के कारण मुझे विद्या, धन अथवा शास्‍त्र प्रदान किया है तो मैं इस तरह का दान लेना पसंद नहीं करता ।

गन्‍धर्व बोला- महापुरुषों के साथ जो समागम होता है, वह प्रीति को बढ़ानेवाला होता है- ऐसा देखने में आता है। आपने मुझे जीवनदान दिया है, इससे प्रसन्‍न होकर मैं आपको चाक्षुषी विद्या भेंट करता हूं। साथ ही आपसे भी मैं उत्‍तम आग्‍नेयास्‍त्र ग्रहण करुंगा। भरतकुलभूषण अर्जुन ! ऐसा करने से हम दोनों में दीर्घकाल तक समुचित सौहार्द बना रहेगा।

अर्जुन ने कहा- ठीक है, मैं यह अस्‍त्र‍ विद्या देकर तुमसे घोड़े ले लूंगा। हम दोनों की मैत्री सदा बनी रहे। सखे गन्‍धर्वराज ! बताओं तो सही, तुम लोगों से हम मनुष्‍यों को क्‍यों भय प्राप्‍त होता है? गन्‍धर्व ! हम सब लोग वेदवेत्‍ता हैं और शत्रुओं का दमन करने की शक्ति रखते हैं; फिर भी रात में यात्रा करते समय जो तुमने हम लोगों पर आक्रमण किया है, इसका क्‍या कारण है ? इस पर भी प्रकाश डालो ?

गन्‍धर्व बोला-पाण्‍डुकुमारो ! आप लोग (विवाहित न होने के कारण) त्रिविध अग्रि‍यों की सेवा नहीं करते। (अध्‍ययन पूरा करके समावर्तन संस्‍कार से सम्‍पन्‍न हो गये हैं, अत:) प्रतिदिन अग्नि को आहुति भी नहीं देते। आपके आगे कोई ब्राह्मण पुरोहित भी नहीं है। इन्‍हीं कारणों से मैंने आप पर आक्रमण किया है। बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ अर्जुन ! इसीलिये मैंने आप लोगों के तेज और कुलोचित्‍त प्रभाव को जानते हुए भी आप पर आक्रमण करने का विचार किया। भरतश्रेष्‍ठ ! आप लोग महान् तेजस्‍वी हैं। आपने अपने गुणों से जिस शोभाशाली श्रेष्‍ठ यश का विस्‍तार किया है, उसे तीनों लोकों में कौन नहीं जानता। बुद्धिमान् यक्ष, राक्षस, गन्‍धर्व, पिशाच, नाग और दानव कुरुकुल की यशोगाथा का विस्‍तारपूर्वक वर्णन करते हैं। वीर ! नारद आदि देवर्षियों के मुख से भी मैंने आपके बुद्धिमान् पूर्वजों का गुणगान सुना है। तथा समुन्‍द्र से घिरी हुई इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी पर विचरते हुए मैंने स्‍वयं भी आप के उत्‍तम कुल का प्रभाव प्रत्‍यक्ष देखा है।। अर्जुन ! तीनों लोकों में विख्‍यात यशस्‍वी भरद्वाजनन्‍दन द्रोण को भी, जो आपके वेद और धनुर्वेद के आचार्य रहे हैं, मैं अच्‍छी तरह जानता हूं। कुरुश्रेष्‍ठ ! धर्म, वायु, इन्‍द्र, दोनों अश्र्विनिकुमार तथा महाराज पाण्‍डु-ये छ: महापुरुष कुरुवंश की वृद्धि करनेवाले हैं। पार्थ ! ये देवताओं तथा मनुष्‍यों के सिरमौर छहो व्‍यक्ति आप लोगों के पिता हैं। मैं इन सबको जानता हूं। आप सब भाई देवस्‍वरुप, महात्‍मा, समस्‍त शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ शूरवीर हैं तथा आप लोगों ने ब्रह्मचर्य का भलीभांति पालन किया है। आप लोगों का अन्‍त:करण शुद्ध है, मन और बुद्धि भी उत्‍तम है। पार्थ ! आपके विषय में यह सब कुछ जानते हुए भी मैंने यहां आक्रमण किया था। कुरुनन्‍दन ! इसका कारण यह है कि अपने बाहुबल का भरोसा रखनेवाला कोई भी पुरुष जब स्‍त्री के समीप अपना तिरस्‍कार होता देखता है, तब उसे सहन नहीं कर पाता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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