महाभारत आदि पर्व अध्याय 216 श्लोक 1-17

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षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

वर्गा की प्रार्थना से अर्जुन का शेष चारों अप्सराओं को भी शापमुक्त करके मणिपूर जाना और चित्रांगदा से मिलकर गोकर्ण तीर्थ को प्रस्थान करना

वर्गा बोली - भरतवंश के महापुरूष ! उन ब्राह्मण का शाप सुनकर हमें बड़ा दुःख हुआ । तब हम सब की सब अपने धर्म से च्युत न होने वाले उन तपस्वी विप्र की शरण में गयीं। (और इस प्रकार बोलीं -) ब्राह्मण ! हम रूप, यौवन और काम से उन्मत्त हो गयी थीं । इसीलिये यह अनुचित कार्य कर बैठी । आप कृपापूर्वक हमारा अपराध क्षमा करें। ‘तपोधन ! हमारा तो पूर्ण रूप से यही मरण हो गया कि हम आप जैसे शुद्धात्मा मुनि को लुभाने के लिये यहाँ आयीं। ‘धर्मात्म पुरूष ऐसा मानते हैं कि स्त्रियाँ अवध्य बनायी गयी हैं । अतः आप अपने धर्माचरण द्वारा निरन्तर उन्नति कीजिये । आपको इस अवलाओं की हत्या नहीं करनी चाहिये। ‘धर्मज्ञ ! ब्राह्मण समस्त प्राणियों पर मैत्रीभाव रखने वाला कहा जाता है । भद्रपुरूष ! मनीषी पुरूषों का यह कथन सत्य होना चाहिये।।५।। ‘श्रेष्ठ महात्मा शरणागतों की रक्षा करते हैं। हम भी आप की शरण मं आयी हैं; अतः आप हमारे अपराध क्षमा करें’।

वैशम्पायनजी कहते हैं - वीरवर ! उनके ऐसा कहने पर सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी तथा शुभ कर्म करने वाले उन धर्मात्मा ब्राह्मण ने उन सब पर कृपा की। ब्राह्मण बोले - ‘शत’ और ‘शतसहस्त्र’ शब्द ये सभी अनन्त संख्या के वाचक हैं, परंतु यहाँ जो मैंने ‘शतं समाः’ (तुम लोगों को सौ वर्षों तक ग्राह होने के लिये) कहा है, उसमें शत शब्द् सौ वर्ष के परिमाण का ही वाचक है। अनन्त काल का वाचक नहीं है। जब जल में ग्राह बनकर लोगों को पकड़ने वाली तुम सब अप्सराओं को कोई श्रेष्ठ पुरूष जल से बाहर स्थल पर खींच लायेगा, उस समय तुम सब लोग फिर अपना दिव्य रूप प्राप्त कर लोगी। मैंने पहले कभी हँसी में भी झूठ नहीं कहा है। तुम लोगों का उद्धार हो जाने के बाद वे सभी तीर्थ इस जगत् में नारीतीर्थ के नाम से विष्यात होंगे और मनीषी पुरूषों को भी पवित्र करने वाले पुण्य तीर्थ बन जायँगे। वर्गा कहती है - भारत ! तदनन्तर उन ब्राह्मण को प्रणाम और उनकी प्रदक्षिणा करके अत्यन्त दुःखी हो हमस ब उस स्थान से अन्यत्र चली आयीं और इस चिन्ता में पड़ गयी कि कहाँ जाकर हम सब लोग रहें, जिससे थोड़े ही समय में हमें वह मनुष्य मिल जाय, जो हमें पुनः हमारे पूर्व स्वरूप की प्राप्ति करायेगा। भरतश्रेष्ठ ! हम लोग दो घड़ी से इस प्रकार सोच-विचार कर ही रही थीं कि हमको महाभाग देवर्षि नारदजी का दर्शन प्राप्त हुआ। कुन्तीनन्दन ! उन अमित तेजस्वी देवर्षि को देखकर हमें बड़ा हर्ष हुआ और उन्हें प्रणाम करके हम लज्जावश सिर झुकाकर वहाँ खड़ी हो गयीं। फिर उन्होनें हमारे दुःख का कारण पूछा और हमने उनसे सब कुछ बता दिया। सारा हाल सुनकर वे इस प्रकार बोले -। ‘दक्षिण समुद्र के तट के समीप पाँच तीर्थ हैं, जो परम पुण्यजनक तथा अत्यन्त रमणीय है। तुम सब उन्हीं में चली जाओ, देर न करो’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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