महाभारत आदि पर्व अध्याय 90 श्लोक 12-23
नवतितम (90) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
अष्टक ने पूछा-राजन् ! इस मनुष्य योनि में आने वाला जीव अपने इसी शरीर से गर्भ में आता है या दूसरा शरीर धारण करता है। आप यह रहस्य मुझे बताइये। मैं संशय होने के कारण पूछता हूं। गर्भ में आने पर भिन्न-भिन्न शरीर रुपी आश्रय को, आंख और कान आदि इन्द्रियों को तथा चेतना को भी कैसे उपलब्ध करता है? मेरे पूछने पर ये सब बातें आप बताइये। तात ! हम सब लोग आपको क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) मानते हैं। ययाति बोले- ॠतुकाल में पुष्प रस से संयुक्त वीर्य को वायु गर्भाशय में खींच लाता है। वहां गर्भाशय में सूक्ष्मभूत उस पर अधिकार कर लेते हैं और वह क्रमश: गर्भ की वृद्धि करता रहता है। वह गर्भ बढ़कर जब सम्पूर्ण अवयवों से सम्पन्न हो जाता है, तब चेतना का आश्रय ले योनि से बाहर निकलकर मनुष्य कहलाता है। वह कानों से शब्द सुनता है, आंखों से रुप देखता है। नासिका से सुगन्ध लेता है। जिव्हा से रस का आस्वादन करता है। त्वचा से स्पर्श और मन से आन्तरिक भावों का अनुभव करता है। अष्टक ! इस प्रकार महात्मा प्राणधारियों के शरीर में जीव की स्थापना होती है। अष्ठक ने पूछा- जो मनुष्य मर जाता है, वह जलाया जाता है या गाड़ दिया जाता है अथवा जल में वहा दिया जाता है। इस प्रकार बिनाश होकर स्थूल शरीर का अभाव हो जाता है। फिर वह चेतन जीवात्मा किस शरीर के आधार पर रहकर चैतन्य युक्त व्यवहार करता है? ययाति बोले- राजसिंह ! जैसे मनुष्य श्वास लेते हुए प्राणयुक्त स्थूल शरीर को छोड़कर स्वप्न में विचरण करता है, वैसे ही यह चेतन जीवात्मा अस्फुट शब्दोचारण के साथ इस मृतक स्थूल शरीर को त्यागकर सूक्ष्म शरीर से संयुक्त होता है और फिर अथवा पाप को आगे रखकर वायु के समान वेग से चलता हुआ अन्य योनि को प्राप्त होता है। पुण्य करने वाले मनुष्य पुण्य योनि में जाते हैं और पाप करने वाले मनुष्य पाप योनि में जाते हैं। इस प्रकार पापी जीव कीट-पतंग आदि होते हैं। महानुभाव ! इन सब विषयों को विस्तार के साथ कहने की इच्छा नहीं होती। नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार जीव गर्भ में आकर चार पैर, छ: पैर और दो पैर वाले प्राणियों के रुप में उत्पन्न होते हैं। यह सब मैंने पूरा-पूरा बता दिया। अब और क्या पूछना चाहते हो? अष्टक ने पूछा-तात ! मनुष्य कौन-सा कर्म करके उत्तम लोक प्राप्त करता है? वे लोक तप से प्राप्त होते हैं या विद्या से? मैं यही पूछता हूं। जिस कर्म के द्वारा क्रमश: श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति हो सके, वह सब यथार्थ रुप से बताइये। ययाति बोले-राजन् ! साधु पुरुष स्वर्ग लोक के सात महान् दरवाले बतलाते हैं, जिनसे प्राणी उसमें प्रवेश करते हैं। उनके नाम ये हैं- तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियों के प्रति दया। वे तप आदि द्वार सदा ही पुरुष के अभिमानरुप तप से आच्छादित होने पर नष्ट हो जाते हैं, यह संत पुरुषों का कथन है। जो वेदों का अध्ययन करके अपने को सबसे बड़ा पण्डित मानता है और अपनी विद्या द्वारा दूसरों के यश का नाश करता है, उसके पुण्यलोक अन्तवान् (विनाश शील) होते हैं और उसका पढ़ा हुआ वेद भी उसे फल नहीं देता।
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