महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 191 श्लोक 1-19

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एकनवत्यधिकशततम (191) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

द्रुपदपत्नी का उत्तर, द्रुपद के द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधान तथा शिखण्डिनी का वन में जाकर स्थूणाकर्ण नामक यक्ष से अपने दु:खनिवारण के लिये प्रार्थना करना

भीष्‍मजी कहते हैं- महाबाहु नरेश्‍वर! तब शिखण्‍डी की माता ने अपने पति से यथार्थ रहस्य बताते हुए कहा- ‘यह पुत्र शिखण्‍डी नहीं, शिखण्डिनी नाम वाली कन्या है ।‘राजन्! पुत्ररहित होने के कारण मैंने अपनी सौतों के भय से इस कन्या शिखण्डिनी के जन्म लेने पर भी इसे पुत्र ही बताया । ‘नरश्रेष्‍ठ! आपने भी प्रेमवश मेरे इस कथन का अनुमोदन किया और महाराज! कन्या होने पर भी आपने इसका पुत्रोचित संस्कार किया ‘राजन्! मेरे ही कथन पर विश्‍वास करके आप दशार्णराज की पुत्री को इसकी पत्नी बनाने के लिये ब्याह लाये। महादेवजी के वरदानवाक्य पर दृष्टि रखने के कारण मैंने इसके विषय में पुत्र होने की घोषणा की थी। महादेवजी ने कहा था कि पहले कन्या होगी, फिर वहीं पुत्र हो जायगा। इसीलिये इस वर्तमान संकट की उपेक्षा की गयी’ । यह सुनकर यज्ञसेन द्रुपद ने मन्त्रियों को सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। राजन्! तत्पश्‍चात् प्रजा की रक्षा के लिये जैसी व्यवस्था उचित है, उसके लिये उन्होंने पुन: मन्त्रियों के साथ गुप्त मन्त्रणा की । नरेन्द्र! यद्यपि राजा द्रुपद ने स्वयं ही वञ्चना की थी, तथापि दशार्णराज के साथ सम्बन्ध और प्रेम बनाये रखने की इच्छा करके एकाग्रचित्त से मन्त्रणा करते हुए वे एक निश्‍चय पर पहुंच गये । भरतनन्दन राजेन्द्र! यद्यपि वह नगर स्वभाव से ही सुरक्षित था, त‍थापि उस विपत्ति के समय उसको सब प्रकार से सजा करके उन्होंने उसकी रक्षा के लिये विशेष व्यवस्था की । भरतश्रेष्‍ठ! दशार्णराज के साथ विरोध की भावना होने पर रानी सहित राजा द्रुपद को बड़ा कष्‍ट हुआ । अपने सम्बन्धी के साथ मेरा महान् युद्ध कैसे टल जाय- यह मन-ही-मन विचार करके उन्होंने देवता की अर्चना आरम्भ कर दी । राजन्! राजा द्रुपद को देवाराधन में तत्पर देख महारानी ने पूजा चढा़ते हुए नरेश से इस प्रकार कहा- । ‘देवताओं की आराधना साधु पुरूषों के लिये सदा ही सत्य (उत्तम) हैं। फिर जो दु:ख के समुद्र में डूबा हुआ हो, उसके लिये तो कहना ही क्या हैं। अत: आप गुरूजनों और सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करें, ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा दें और दशार्णराज के लौट जाने के लिये अग्नियों में होम करें ‘प्रभो! मन-ही-मन यह चिन्तन कीजिये कि दशार्णराज बिना युद्ध किये ही लौट जायं। देवताओं के कृपा प्रसाद से यह सब कुछ सिद्ध हो जायगा ‘विशाललोचन नरेश! आपने इस नगर की रक्षा के लिये मन्त्रियों के साथ जैसा विचार किया हैं वैसा कीजिये। ‘भूपाल! पुरूषार्थ से संयुक्त होने पर ही दैव विशेषरूप से सिद्धि को प्राप्त होता हैं। दैव और पुरूषार्थ में परस्परविरोध होने पर इन दोनों की ही सिद्धि नहीं होती । ‘राजन्! अत: आप मन्त्रियों के साथ नगर की रक्षा के लिये आवश्‍यक व्यवस्था करके इच्छानुसार देवताओं की अर्चना कीजिये’ । इन दोनों को इस प्रकार शोकमग्न होकर बातचीत करते देख उनकी तपस्विनी पुत्री शिखण्डिनी लज्जित-सी होकर इस प्रकार चिन्ता करने लगी- ‘ये मेरे माता और पिता दोनों मेरे ही कारण दुखी हो रहे हैं।’ ऐसा सोचकर उसने प्राण त्याग देने का‍ विचार किया । इस प्रकार जीवन का अन्त कर देने का निश्‍चय करके वह अत्यन्त शोकमग्न हो घर छोड़कर निर्जन एवं गहन वन-में चली गयी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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