महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 84 श्लोक 1-21
चतुरशीति (84) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन तथा मार्ग में लोगों द्वारा सत्कार पाते हुए श्रीकृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर वहाँ विश्राम करना
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! महाबाहु श्रीकृष्ण के प्रस्थान करते समय विपक्षी वीरों पर विजय पाने वाले शस्त्रधारी दस महारथी, एक हजार पैदल योद्धा, एक हजार घुड़सवार, प्रचुर खाद्य-सामग्री तथा दूसरे सैकड़ों सेवक उनके साथ गए । जनमजेय ने पूछा– दशार्हकुलतिलक महात्मा मधुसूदन ने किस प्रकार यात्रा की ? उन महातेजस्वी श्रीकृष्ण के जाते समय कौन-कौन से भले-बुरे शकुन प्रकट हुए थे ? वैशम्पायन जी ने कहा– राजन ! महात्मा श्रीकृष्ण के प्रस्थान करते समय जो दिव्य शकुन और उत्पातसूचक अपशकुन प्रकट हुए थे, मुझसे उन सबका वर्णन सुनो । बिना बादल के ही आकाश में बिजली सहित व्रज की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी । उसके साथ ही पर्जन्य देवता ने मेघों की घटा न होने पर भी प्रचुर जल की वर्षा की । पूर्व की ओर बहने वाली सिंधु आदि बड़ी-बड़ी नदियों का प्रवाह उलटकर पश्चिम की ओर हो गया । सारी दिशाएँ विपरीत प्रतीत होने लगीं । कुछ भी समझ में नहीं आता था। राजन् ! सब ओर आग जलने लगी । धरती डोलने लगी । सैकड़ों जलाशय और कलश छलक-छलक कर जल गिराने लगे । राजन् ! यह सारा संसार धूल के कारण अंधकार से आच्छन्न सा हो गया । कौन दिशा है, कौन दिशा नहीं है – इसका ज्ञान नहीं हो पाता था। महाराज ! फिर बड़े ज़ोर से कोलाहल होने लगा । आकाश में सब ओर मनुष्य की-सी आकृति दिखाई देने लगी । सम्पूर्ण देशों में यह अद्भुत-सी बात दिखाई दी । दक्षिण-पश्चिम से आँधी उठी और हस्तिनापुर को मथने लगी । उसने झुंड-के-झुंड वृक्षों को तोड़-उखाड़कर धराशायी कर दिया । व्रजपात का सा कठोर शब्द होने लगा ( इस प्रकार के उत्पात हस्तिनापुर के आस-पास घटित होते थे ) भारत ! वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण मार्ग में जहाँ-जहाँ रहते थे, वहाँ-वहाँ सुखदायिनी वायु चलती थी और सभी शुभ शकुन उनके दाहिने भाग में प्रकट होते थे।उन पर फूलों की और बहुत से खिले कमलों की भी वृष्टि होती तथा सारा मार्ग कुश-कंटक से शून्य और समतल होकर क्लेश और दुःख से रहित हो जाता था। सहस्त्रों ब्राह्मण विभिन्न स्थानों में भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते तथा मधुपर्क द्वारा उनकी पूजा करते थे । धनदाता भगवान् ने भी उन सबको यथेष्ट धन दिया । मार्ग में कितनी ही स्त्रियाँ आकर सम्पूर्ण भूतों के हित में रात रहनेवाले उन महात्मा श्रीकृष्ण के ऊपर वन के सुगंधित फूलों की वर्षा करती थीं ।भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्मकाय के लिए अत्यंत उपयोगी तथा सम्पूर्ण सस्य-संपत्ति से भरे हुए अगहनी धान के मनोहर खेत देखते हुए भगवान् बड़े सुख से यात्रा कर रहे थे ।रास्ते में कितने ही ऐसे गाँव मिलते, जिनमें बहुत से पशुओं का पालन-पोषण होता था । वे देखने में अत्यंत सुंदर और मन को संतोष देने वाले थे । उन सबको देखते और अनेकानेक नगरों एवं राष्ट्रों को लांघते हुए वे आगे बढ़ते हुए चले गए । इधर उपप्लव्य नगर से आते हुए भगवान् श्रीकृष्ण को देखने की इच्छा से अनेक नागरिक रास्ते में एक साथ खड़े थे । भरतवंशियों द्वारा सुरक्षित होने के कारण वे सदा हर्ष एवं उल्लास से भरे रहते थे । उनका मन बहुत प्रसन्न था । उन्हें शत्रुओं की सेनाओं से उद्विग्न होने का अवसर नहीं आता था । दुःख और संकट कैसा होता है, इसको वे जानते ही नहीं थे । उन सबने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी और अपने देश के पूजनीय अतिथि भगवान् श्रीकृष्ण को समीप आते देख निकट जाकर उनका यथावत पूजन किया । शत्रुवीरों का संहार करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण जब वृकस्थल में पहुंचे, उस समय नाना किरणों से मंडित सूर्य अस्त होने लगे और पश्चिम के आकाश में लाली छा गयी । तब भगवान् ने शीघ्र ही रथ से उतरकर उसे खोलने की आज्ञा दी और विधिपूर्वक शौच-स्नान करके वे सन्ध्योपासना करने लगे ।
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