महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-18
एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि और उनके सारथि का संवाद तथा सात्यकि द्वारा काम्बोजों और यवन आदि की सेना की पराजय
संजय कहते है- राजन्। तदनन्तर वृष्णिवंशावतंस बुद्धिमान् महामनस्वी सात्यकि ने युद्ध में सुदर्शन को मारकर सारथि से फिर इस प्रकार कहा। ‘तात। रथ, घोड़े और हाथियों से भरी हुई द्रोणाचार्य की सेना महासागर के समान थी। उसमें बाण और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्र तरंगमालाओं के समान प्रतीत होते थे। खंग्ड मत्स्य के समान और गदा ग्राह के तुल्य थी। शूरवीरों के आयुधों के प्रहार से महान् शब्द होता था, वही मानो महा-सागर का भयानक गर्जन था। बाजे बजाने की ध्वनि और वीरों के ललकारने की आवाज से उस गर्जन का स्वर और भी बढ़ा हुआ था। योद्धाओं के लिये उसका स्पर्श अत्यन्त दु:ख दायक था। जो विजय की अभिलाषा नहीं रखते, ऐसे लोगों के लिये वह प्राणनाशक भयंकर सैन्य-समुद्र दुर्घर्ष था। युद्धस्थल में खड़ी हुई जलसंध की सेना ने उसे राक्षसों के समान घेर रखा था। उस दुस्तर सेना-सागर से हम लोग पार हो गये हैं। ‘उससे भिन्न जो शेष सेना है, उसे मैं सुगमतापूर्वक लांघनेयोग्य थोड़े जलवाली छोटी नदी के समान समझता हूं। अत: तुम निर्भय होकर घोड़ों को आगे बढ़ाओ। ‘सेवकों सहित दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्य को युद्ध स्थल में जीतकर मैं ऐसा मानता हूं कि इस समय सव्यसाची अर्जुन हमारे हाथ में ही आ गये हैं। ‘योद्धाओं में श्रेष्ठ कृतवर्मा को पराजित करके मैं ऐसा समझता हूं कि अर्जुन मुझे मिल गये। जैसे सूखे तृण और लतावाले वन में प्रज्वलित हुई अग्नि के लिये कहीं कोई बाधा नहीं रहती, उसी प्रकार मुझे इन अनेक सेनाओं को देखकर तनिक भी त्रास नहीं हो रहा है। ‘देखो, पाण्डवप्रवर किरीटधारी अर्जुन जिस मार्ग से गये हैं, वहां की भूमि धराशायी हुए पैदलों, घोड़ों, रथों और हाथियों के समुदाय से विषम एवं दुर्लघ्ड़य हो गयी है।
‘सारथे। उन्हीं महात्मा अर्जुन की खदेड़ी हुई वह सेना इधर-उधर भाग रही है। दौड़ते हुए रथों, हाथियों और घोड़ों से लाल रेशम के समान यह धूल ऊपर को उठ रही है। ‘इससे मैं समझता हूं कि श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन हमारे निकट ही हैं, तभी यह अमित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष की टंकार सुनायी दे रही है। ‘इस समय मेरे सामने जैसे शुभ शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे जान पड़ता है अर्जुन सूर्यास्त होने के पहले ही जयद्रथ को मार डालेंगे। ‘सूत। धीरे-धीरे घोड़ों को आराम देते हुए उस ओर चलो, जहां वह शत्रुसेना खड़ी है, जहां ये तलत्राण धारण किये दुर्योधन आदि योद्धा उपस्थित हैं। ‘जहां कवच धारण किये रणदुर्मद क्रूरकर्मा काम्बोज, धनुष-बाण धारण किये प्रहार कुशल यवन, शक, किरात, दरद, बर्बर, ताम्रलिप्त तथा हाथें में भांति-भांति के आयुध धारण किये अन्य बहुत से म्लेच्छ ये सबके सब जहां दुर्योधन को अगुआ बनाकर दस्ताने पहने युद्ध की इच्छा से मेरी ओर मुंह करके खड़े हैं, वहीं चलो। ‘इन सबको युद्धस्थल में रथ, हाथी, घोड़े और पैदलों सहित मार लेने पर निश्चित रुप से समझ लो कि हमलोग इस अत्यन्त भयंकर दुर्गम सकंट से पार हो गये। सारथि ने कहा- सत्यपराक्रमी वृष्णिनन्दन । आपके सामने क्रोध में भरे हुए जमदग्रिनन्दन परशुराम भी खड़े हो जायं तो मुझे भय नहीं होगा।
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