महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-18
सप्तम (7) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
उत्तर कुरू, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान् का वर्णन
धृतराष्ट्र ने कहा- परमबुद्धिमान् संजय! तुम मेरू के उत्तर तथा पूर्व भाग में जो कुछ है, उसका पूर्ण रूप से वर्णन करो। साथ ही माल्यवान् पर्वत के विषय में भी जानने योग्य बातें बताओ। संजय ने कहा- राजन्! नीलगिरि से दक्षिण तथा मेरूपर्वत के उत्तर भाग में पवित्र उत्तर कुरूवर्ष है, जहां सिद्ध पुरूष निवास करते हैं। वहां के वृक्ष सदा पुष्प और फल से सम्पन्न होते हैं और उनके फल बडे़ मधुर एवं स्वादिष्ट होते हैं। उस देश के सभी पुष्प सुगन्धित और फल सरस होते हैं। नरेश्वर! वहां के कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों के दाता हैं। राजन्! दूसरे क्षीरी नामवाले वृक्ष हैं, जो सदा षड्विध रसों से युक्त एवं अमृत के समान स्वादिष्ट दुग्ध बहाते रहते हैं। उनके फलों में इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं। जनेश्वर! वहां की सारी भूमि मणिमयी है। वहां जो सूक्ष्म बालू के कण हैं, वे सब सुवर्णमय हैं। उस भूमि पर कीचड़ का कहीं नाम भी नहीं है। उसका स्पर्श सभी ॠतुओं में सुखदायक होता हैं। वहां के सुन्दर सरोवर अत्यन्त मनोरम होते हैं। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता है। वहां देवलोक से भूतलपर आये हुए समस्त पुण्यात्मा मनुष्य ही जन्म ग्रहण करते हैं। ये सभी उत्तम कुल से सम्पन्न और देखने में अत्यन्त प्रिय होते हैं।
वहां स्त्री-पुरूषों के जोडे़ भी उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां अप्सराओं के समान सुन्दरी होती हैं। उत्तरकुरू के निवासी क्षीरी वृक्षों के अमृत-तुल्य दूध पीते हैं। वहां स्त्री-पुरूषों के जोडे़ एक ही साथ उत्पन्न होते और साथ-साथ बढ़ते हैं। उनके रूप, गुण और वेष सब एक-से होते हैं। प्रभो! वे चकवा-चकवी के समान सदा एक-दूसरे के अनुकूल बने रहते हैं। उत्तरकुरू के लोग सदा नीरोग और प्रसन्नचित्त रहते हैं। महाराज! वे ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। एक दूसरे का कभी त्याग नहीं करते। वहां भारूण्ड नाम के महाबली पक्षी हैं, जिनकी चोंचें बड़ी तीखी होती हैं। वे वहां के मरे हुए लोगों की लाशें उठाकर ले जाते और कन्दराओं में फेंक देते हैं । राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे थोडे़ में उत्तरकुरूवर्ष का वर्णन किया। अब मैं मेरू के पूर्वभाग में स्थित भद्राश्र्ववर्ष का यथावत् वर्णन करूंगा। प्रजानाथ! भद्राश्र्ववर्ष के शिखर पर भद्रशाल नाम का एक वन है एवं वहां कालाम्र नामक महान् वृक्ष भी हैं।
महाराज! कालाम्र वृक्ष बहुत ही सुन्दर और एक योजन ऊंचा है। उसमें सदा फूल और फल लगे रहते हैं।
सिद्ध और चारण पुरूष उसका सदा सेवन करते हैं। वहां के पुरूष श्वेत वर्ण के होते हैं। वे तेजस्वी और महान् बलवान् हुआ करते हैं। वहां की स्त्रियां कुमुद-पुष्प के समान गौर वर्णवाली, सुन्दरी तथा देखने में प्रिय होती हैं। उनकी अङ्गकान्ति एवं वर्ण चन्द्रमा के समान हैं। उनके मुख पूर्ण चन्द्र के समान मनोहर होते हैं। उनका एक-एक अङ्ग चन्द्ररश्मियों के समान शीतल प्रतीत होता है। वे नृत्य ओर गीत की कला में कुशल होती हैं। भरतश्रेष्ठ! वहां के लोगों की आयु दस हजार वर्ष की होती हैं। वे कालाम्र वृक्ष का रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं।
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