महाभारत वन पर्व अध्याय 116 श्लोक 14-29

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षोडशाधिकशततम (116) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद

‘बेटा ! अपनी इस पापीनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो ।‘ तब परशुरामजी ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला । महाराज ! इससे महात्मा जमदग्रि का क्रोध सहसा शान्त हो गया और उन्होने प्रसन्न होकर कहा- ‘तात ! तुमने मेरे कहने पर वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरो के लिये बहुत कठिन है । तुम धर्म के ज्ञाता हो । तुम्हारे मन में जो-जो कामनाऐं हों, उन सबको मांग लो ।‘ तब परशुरामजी ने कहा- ‘पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हे मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहें, वह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जाये, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करुं। ‘ भारत ! महातेजस्वी जमदग्रि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दी । युधिष्ठि‍र ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे । उसी समय अनूपदेश का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला । आश्रम में आने पर ऋषि‍पत्नी रेणुका ने उसका यथाचित आथित्य सत्कार किया । कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उत्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया । उल्टे मुनि के आश्रम को तहस नहस करके वहां से डकारती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला । जब परशुरामजी आश्रम मे आये, तब स्वयं जमदग्रि ने उनसे सारी बातें कही । बार बार डकराती हुई होम की धेनु पर उनकी दृष्‍टि‍ पड़ी । इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे । और काल के वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया । शत्रुवीरों का संहार करने वाले भृगुनन्दन परशुरामजी ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान पराक्रम दिखाकर पैने बाणों द्वारा उसकी परिघसदृश सहस्त्र भुजाओं को काट डाला । इस प्रकार परशुरामजी से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया । पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुरामजी पर कुपित हो उठे । और एक दिन परशुरामजी की अनुपस्थिति मे जब आश्रम पर केवल जमदग्रि जी ही रह गये थे, वे उन्हीं पर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्रि जी महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्ध में प्रवृत्त नहीं हुए । इस दशा में भी कार्तवीर्य के पुत्र उन पर प्रहार करने लगे । युधिष्ठि‍र ! वे महर्षि‍ अनाथ की भांति ‘राम ! राम ! !‘ की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था मे कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों ने उन्हे बाणों से घायल करके मार डाला । इस प्रकार मुनि की हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये । जमदग्नि के इस तरह मारे जाने के बाद वे कार्तवीर्य पुत्र भाग गये, तब भृगुनन्दन परशुरामजी हाथों में समिधा लिये आश्रम में आये । वहां अपने पिता को दुदर्शापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ । उनके पिता इस प्रकार मारे जाने के योग्‍य कदापि नहीं थे, परशुरामजी उन्हें याद करके विलाप करने लगे ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थ यात्रा पर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवध विषयक एक सौ सोलहवां अध्याय पूरा हुआ ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।