महाभारत वन पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-18

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सप्तदशाधिकशततम (117) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

परशुरामजी का पिता के लिये विलाप और पृथ्वी को इक्कीस बार नि:क्षत्रिय करना एवं महाराज युधिष्ठि‍र के द्वारा परशुरामजी का पूजन

परशुरामजी जी बोले- हा तात ! मेरे अपराध का बदला लेने के लिये कार्तवीर्य के उन नीच और पामर पुत्रों ने वन में बाणों द्वारा मारे जाने वाले मृग की भांती आपकी हत्या की है । पिताजी ! आप तो धर्मज्ञ होने के साथ ही सन्मार्ग पर चलने वाले थे, कभी किसी भी प्राणी के प्रति कोई अपराध नहीं करते थे, फिर आपकी ऐसी मृत्यु कैसे उचित हो सकती है । आप तपस्या में संलग्न, युद्ध से विरत और वृद्ध थे तो भी जिन्होने सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा आपकी हत्या की है, उन्होनें कौन सा पाप नहीं किया । वे निर्लज्ज राजकुमार युद्ध से दूर रहने वाले आप जैसे धर्मज्ञ एवं असहाय पुरुष को मारकर अपने सुहृदों और मंत्रियों के सामने क्या कहेंगे । राजन ! इस प्रकार भांति भांति से अत्यन्त करुणाजनक विलाप करके शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महातपस्वी परशुरामजी ने अपने पिता के समस्त प्रेतकर्म किये । भारत ! पहले तो उन्होंने विधिपूर्वक अग्नि में पिता का दाह संस्कर किया, तत्पश्चात सम्पूर्ण क्षत्रियों के वध की प्रतिज्ञा की । अत्यन्त बलवान एवं पराक्रमी परशुरामजी क्रोध के आवेश में साक्षात यमराज के समान हो गये । उन्होने युद्ध में शस्त्र लेकर अकेले ही कार्तवीर्य के सब पुत्रों को मार डाला । क्षत्रिय शिरोमणी ! उस समय जिन जिन क्षत्रियों ने उनका साथ दिया, उन सबको भी योद्धाओं में श्रेष्‍ट परशुरामजी ने मिट्टी में मिला दिया । इस प्रकार भगवान परशुराम ने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से सूनी करके उनके सक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पांच रुधिर कुण्ड भर दिये । भृगुकुल भूषण राम में उन कुण्डों में भृगुवंशी पितरों का तर्पण किया और साक्षात प्रकट हुए महर्षि‍ ऋचीक को देखा । उन्होंने परशुराम को इस घोर कर्म से रोका । तदनन्तर प्रतापी जमदग्नि कुमार ने एक महान यज्ञ करके देवरराज इन्द्र को तृप्त किया तथा ऋत्विजों को दक्षि‍णा रुप में भूमि दी । युधिष्ठि‍र ! उन्होंने महात्मा कश्यप को एक सोने की वेदी प्रदान की, जिसकी लम्बाई चौड़ाई दस दस व्याम (चालीस चालीस हाथ) की थी उंचाई में भी वह वेदी नौ व्याम (छत्तीस हाथ की थी) राजन ! उस समय कश्यपजी की आज्ञा से ब्राहृमणो ने उस स्वर्ग वेदी को खण्ड खण्ड करके बांट लिया, अत: वे खण्डवायन नाम से प्रसिद्ध हुए । इस प्रकार सारी पृथ्वी महात्मा कश्यप को देकर अमित पराक्रमी परशुरामजी इस पर्वतराज महेन्द्र पर निवास करते हैा । इस तरह उनका सम्पूर्ण जगत के क्षत्रियों के साथ वैर हुआ था और समय अमित तेजस्वी परशुरामजी ने सारी पृथ्वी जीती थी । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदनन्तर चतुर्दशी तिथी को निश्चित समय पर महामना परशुरामजी ने उस पर्वत पर रहने वाले उन ब्राह्मणों तथा भाईयों सहित युधिष्ठिर को दर्शन दिया । राजेन्द्र ! उस समय प्रभावशाली नृपश्रेष्‍ट युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ श्रद्धापूर्वक भगवान परशुराम की पूजा की तथा अप्य ब्राह्मणो का भी बहुत आदर सत्कार किया । जमदग्नि नन्दन परशुरामजी की पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा सम्मानित हो वे उन्ही की आज्ञा से उस रात को महेन्द्र पर्वत पर ही रहे, फिर सबेरे उठकर दक्षि‍ण दिशा की ओर चल दिये ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थ यात्रा पर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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