महाभारत वन पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-16
अष्टादशाधिकशततम (118) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
युधिष्ठिर का विभिन्न तीर्थों में होते हुए प्रभास क्षेत्र मे पहूंचकर तपस्या में प्रवृत्त होना और यादवों का पाण्डवों से मिलना
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! आगे जाते हुए महानुभव राजा युधिष्ठिर ने समुद्र तट के समस्त पुण्य तीर्थों का दर्शन किया । वे सभी तीर्थ परम मनोहर थे । उनमें कहीं-कहीं ब्राह्मण लोग निवास करते थे, जिससे उन तीर्थों की शोभा होती थी । परीक्षितनन्दन ! सदाचारी पाण्डुकुमार युधिष्ठिर कश्यपपुत्र सूर्यदेव के पौत्र थे । (क्योंकि उनकी उत्पत्ति सूर्यकुमार धर्म से हुई थी) । वे भाइयों सहित उन तीर्थों में स्नान कर के समुद्रगामिनी पुण्यमयी प्रशस्ता नदी के तट पर गये । महानुभव युधिष्ठिर ने भी वहां स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया तथा ब्राह्मणों को धन दान करके सागरगामिनी गोदावरी नदी की ओर प्रस्थान किया । जनमेजय ! गोदावरी में स्नान करके पवित्र हो वे वहां से द्रविड़ प्रदेश में घूमते हुए संसार के पुण्यमय तीर्थ समुद्र के तट पर गये । वहां स्नान आदि करने के पश्चात वीर पाण्डुकुमार ने आगे बढ़कर परम पवित्र अगस्त्य तीर्थ तथा नारी तीर्थों का दर्शन किया । वहां श्रेष्ट धनुर्धर अर्जुन के उस पराक्रम को, जो दूसरे मनुष्यों के लिये असम्भव था, सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन तीर्थों में बड़े बड़े ऋषिगण भी उनका सत्कार करते थे । जनमेजय ! द्रौपदी तथा भाइयों के साथ राजा युधिष्ठिर ने उन पांचों तीर्थों में स्नान करके अर्जुन के पराक्रम की प्रशंसा करते हुए बड़े हर्ष का अनुभव किया । तदनन्तर समुद्र तटवर्ती उन सभी तीर्थों में सहस्त्रों गोदान करके भाइयों सहित युधिष्ठिर ने प्रसन्नतापूर्वक अर्जुन के द्वारा किये हुए गोदान का बार बार वर्णन किया । राजन ! समु्द्र-सम्बधी तथा बहुत से पुण्य तीर्थो में क्रमश: भ्रमण करते हुए पूर्णकाम राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त पुण्यमय शूर्पारकतीर्थ का दर्शन किया । वहां समुद्र के कुछ भाग का लांघकर वे एक ऐसे वन मे आये, जो भूमण्डल में सर्वथा विख्यात था । वहां पूर्वकाल में देवताओं ने तपस्या की थी और पुण्यात्मा नरेशों ने यज्ञों का अनुष्ठान किया था । लम्बी और मोटी भुजाओं वाले युधिष्ठिर ने उस वन में धनुर्धर शिरोमणी ऋचीकवंशी परशुरामजी की वेदी देखी, जो पूण्यात्मा पुरूषों के लिए पूजनीय थी तथा तपस्वियों के समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे । राजन ! तत्पश्चात उन महात्मा नरेश ने वसु, मरूद्रण, अश्विनीकुमार, यम, आदित्य, कुबेर, इन्द्र, विष्णु, भगवान सविता, शिव, चन्द्रमा, सूर्य, वरूण, साध्यगण, धाता, पितृगण, अपने गणों सहित रूद्र, सरस्वती, सिद्ध समुदाय तथा अन्य पुण्यमय देवताओं के परम पवित्र और मनोहर मन्दिरों के दर्शन किये । उन तीर्थो के निकट निवास करने वाले विद्वान ब्राह्मणों को वस्त्राभूषणों से आच्छादित एवं विभूषित करके उन्हें बहुमूल्य रत्नों की भेंट दे वहां के सभी तीर्थों में स्नान करके महाराज युधिष्ठिर पुन: शुपारकक्षेत्र में लौट आये । वहां से प्रस्थित हो वे भाइयों सहित सागरतटवर्ती तीर्थों के मार्ग से होते हुए फिर प्रभास क्षेत्र आये, जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कारण भूमण्डल में अधिक प्रसिद्ध थे । वहां भाइयों सहित स्नान करके विशाल एवं लाल नेत्रों वाले राजा युधिष्ठिर ने देवताओं और पितरों का तर्पण किया । इसी प्रकार द्रौपदी ने, साथ आये हुए उन ब्राह्मणों ने तथा महर्षि लोमश ने भी वहां स्नान एवं तर्पण किये ।
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