महाभारत वन पर्व अध्याय 231 श्लोक 43-64
एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमास्या पर्व )
रूद्रदेवके पीछे ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, नदियां, गहरे जलाश्य, समुद्र, अप्सराएं, नक्षत्र, ग्रह तथा देवकुमार चल रहे थे । मनोहर रूप और भॉंति-भॉंतिकी आकृति धारण करनेवाली बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियां फूलों की वर्षा करती हुई भगवान रूद्रके पीछे-पीछे जा रही थीं । पिनांकधारी भगवान शंकरको नमस्कार करके पर्जन्यदेव भी उनके पछे-पीछे चले । चन्द्रमा ने उनके मस्तकपर श्वेत छत्र लगा रक्खा था । राजन् ! वायु और अग्नि चंवर लेकर दोनो ओर खडे थे । तेजस्वी इन्द्र समस्त राजर्षियों के साथ भगवान वृषभध्वजकी स्तुति करते हुए उनके पीछे’-पीछे जा रहे थे । गौरी, विद्या, गान्धारी, केशिनी, मित्रा और सावित्री-ये सब पार्वतीदेवीके पीछे-पीछे चल रही थीं । विद्वानोंद्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण विद्याएं भी उन्हींके साथ थीं । इन्द्र आदि देवता सेनाके मुहानेपर उपस्थित हो भगवान शिवके आदेशका पालन करते थे । एक राक्षस ग्रह सेनाका झंडा लेकर आगे-आगे चलता था । भगवान रूद्रका सखा यक्षराज पिंगलदेव जो सदा श्मशानमें ही (उसकी रक्षा के लिये) निवास करता और सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देने वाला था, उस यात्रामें भगवान शिव के साथ था । इन सबके साथ महादेवजी सुखपूर्वक भद्रवटकी यात्रा कर रहे थे । वे कभी सेनाके आगे रहते और कभी पीछे । उनकी कोई निश्चित गति नही थी । मरणधर्मा मनुष्य इस संसार में सत्कर्मोद्वारा रूद्रदेवकी ही पूजा करते है इन्हीं को शिव, ईश, रूद्र और पितामह कहते हैं । लोग नाना प्रकारके भावोंसे भगवान महेश्वरकी पूजा करते हैं । इसी प्रकार ब्राह्मणहितैषी, देवसेनापति कृत्तिकानन्दन स्कन्द भी देवताओं की सेना से घिरे हुए देवेश्वर भगवान शिवके पीछे-पीछे जा रहे थे । तदनन्तर महादेवजीने कुमार महासेनसे यह उत्तम बात कही-‘बेटा ! तुम सदा सावधानीके साथ मारूतस्कन्ध नामक देवताओंके सातवें व्यूहकी रक्षा करना’ । स्कन्द बोले-प्रभो ! मैं सातवें व्यूह मारूतस्कन्धकी अवश्य रक्षा करुँगा । देव इसके ! सिवा और भी मेरा जो कुछ कर्तव्य हो, उसके लिये आप शीघ्र आज्ञा दीजिये । रूद्र ने कहा-पुत्र ! काम पड़नेपर तुम सदा मुझसे मिलते रहना । मेरे दर्शनसे तथा मुझमें भक्ति करनेसे तुम्हारा परम कल्याण होगा । मार्कण्डेयजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर भगवान महेश्वर नें कार्तिकेयको हृदयसे लगाकर विदा किया । स्कन्दके विदा होते ही बड़ा भारी उत्पात होने लगा । महाराज ! सहसा समस्त ।देवताओंको मोहमें डालता हुआ नक्षत्रोंसहित आकाश प्रज्वलित हो उठा । समस्त संसार अत्यन्त मूढ़-सा हो गया । पृथ्वी हिलने लगी । उसमें गड़गड़ाहट पैदा हो गयी । सारा जगत् अन्धकार में मग्न-सा जान पड़ता था । उस समय यह दारूण उत्पात देखकर भगवान शंकर, महाभाग उमा, देवगण तथा महर्षिगण क्षुब्ध हो उठे । जिस समय वे समय वे सब लोग मोह-ग्रस्त हो रह थे, उसी समय पर्वतों और मेघमालाओंके समान दैत्यों की विशाल एवं भंयकर सेना दिखायी दी । वह नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी । उसके सैनिकोंकी संख्या गिनी नहीं जा सकती थी । वह भंयकर वाहिनी अनेक प्रकारकी बोली बोलती हुई भीषण गर्जना कर रही थी । उसनें रण-भूमिमें आकर देवताओं तथा भगवान शंकर पर धावा बोल दिया । दैत्योंने देताओंके सैनिकोंपर कई बार बाण वर्षा की । शिलाखण्ड, शतघ्नी (तोप), प्रास, खंग, परिघ और गदाओंके लगातार प्रहार हो रहे थे । इन भंयकर अस्त्रोंकी मारसे देवताओंकी सारी सेना क्षणभरमें (पीठ दिखाकर) भाग चली । सारे सैनिक युद्धसे विमुख दिखाई देते थे ।
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