महाभारत वन पर्व अध्याय 290 श्लोक 1-21

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नवत्यधिकद्विशततम (290) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 1-21 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध

मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! अपने प्रिय पुत्र इन्द्रजित् के मारे जाने पर दशमुख रावण का क्रोध बहुत बढ़ गया। वह सुवर्ण तथा रत्नों से विभूषित रथ पर बैइकर लंकापुरी से बाहर निकला। हाथों में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले भयंकर राक्षस उसे घेरकर चले। वह वानर-यूथपतियों से युद्ध करता हुआ श्रीरामचन्द्रजी की ओर दौड़ा । उसे क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख मैन्द, नील, नल, अंगद हनुमान् और जाम्बवान् ने सेना सहित आगे बढ़कर उसे चारों ओर से घेर लिया । उन रीछ और वानर सेनापतियों ने दयाानन के देखते-देखते वृक्षों की मार से उसकी सेना का संहार आरम्भ कर दिया । अपनी सेना को शत्रुओं द्वारा मारी जाती देख मायावी राक्षसराज रावण ने माया प्रकट की । उसके शरीर से सैंकड़ों और हजारों राक्षस प्रकट होकर हाथों में बाण, शक्ति तथा ऋष्टि आदि आयुध लिये दिखायी देने लगे । श्रीरामचन्द्रजी ने अपने दिव्य अस्त्र के द्वारा उन सब राक्षसों को नष्ट कर दिया। तब राक्षसराज ने पुनः माया की सृष्टि की । भारत ! दशानन ने श्रीराम और लक्ष्मण के ही बहुत से रूप धारण करके श्रीराम और लक्ष्मण पर धावा किया । तदनन्तर वे राक्षस हाथों में धनुष बाण लिये श्रीराम और लक्ष्मण को पीड़ा देते हुए उन पर टूट पड़े । राक्षसराज रावण की उस माया को देखकर इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने श्रीराम से यह महत्वपूर्ण बात कही- ‘भगवन् ! अपने ही समान आकार वाले इन पापी राक्षसों को मार डालिये।’ तब श्रीराम ने रावण की माया से निर्मित अपने की समान रूप धारण करने वाले उन सबको तथा अनय राक्षसों को भी मार डाला। इसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हरे रंग के घोड़ों से जुते हुए सूर्य के समान तेजस्वी रथ के साथ उस रणभूमि में श्रीरामचन्द्रजी के समीप आ पहुँचा । मातलि बोला- पुरुषसिंह ! यह हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ विजयशाली उत्तम रथ देवराज इन्द्र का है। इस विशाल रथ के द्वारा इन्द्र ने सैंकड़ों दैत्यों और दानवों का समरांगण में संहार किया है। नरश्रेष्ठ ! मेरे द्वारा संचालित इस रथ्र पर बैइकर आप युद्ध में रावण को शीघ्र मार डालिये, विलम्ब न कीजिये। मातलि के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्रजी ने उसकी बात पर इसलिये संदेह किया कि कहीं यह भी राक्षस की माया ही न हो। तब विभीषण ने उनसे कहा- ‘पुरुषसिंह ! यह इुरातमा रावण की माया नहीं है। ‘महाद्युते ! आप शीघ्र इन्द्र के इस रथ पर आरूढ़ होइये।’ तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रसन्नता पूर्वक विभीषण से कहा- ‘ठीक है।’ यों कहकर उन्होंने रथ पर आरूढ़ हो बड़े रोष के साथ दशमुख रावण पर आक्रमण किया । रावण पर श्रीराम की चढ़ाई होते ही समस्त प्राणी हाहाकार कर उठे, देवलोक में नगारे बज उठे और जोर-जोर से सिंहनाद होने लगा। दशकन्धर रावण तथा राजकुमार श्रीराम में उस समय महान् युद्ध दिड़ गया । उस युद्ध की संसार में अन्यत्र कही उपमा नहीं थी। उनका वह संग्राम उन्हीं के संग्राम के समान था। निशाचर रावण ने श्रीराम पर एक त्रिशूल चलाया, जो उठे हुए इन्द्र के वज्र तथा ब्रह्मदण्ड के समान अत्यन्त भयंकर था; परंतु श्रीराम ने ततकाल अवपने तीखे बाणों द्वारा उस त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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