महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 107-125
चतुःषष्टितम (64) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
‘अशोक वृक्ष ! तुम ऐसा करो, जिससे मैं यहां से शोक-रहित होकर जाऊं । अशोक उसे कहते हैं, जो शोक का नाश करने वाला हो, अतः अशोक ! तुम अपने नामको सत्य एवं सार्थक करो’। इस प्रकार शोकार्त हुई सुन्दरी दमयन्ती उस अशोक वृक्ष की परिक्रमा करके वहां अत्यन्त भयंकर स्थाना की ओर गयी। उसने अनेक प्रकार के वृक्ष, अनेकानेक सरिताओं, बहुसंख्यक रमणीय पर्वतों, अनेक मृग-पक्षियों, पर्वत की कन्दराओं तथा उनके मध्य भागों और अद्भुत नदियों को देखा। पति का अन्वेषण करनेवाली दमयन्ती ने उस समय पूर्वोक्त सभी वस्तुओं को देखा। इस तरह बहुत दूरतक का मार्ग तय कर लेने के बाद पवित्र मुस्कानवाली दमयन्ती ने एक बहुत बड़े सार्थ (व्यपारियों के दल) को देखा, जो हाथी, घोड़े तथा रथ से व्याप्त था। वह व्यापारियों का समूह स्वच्छ जल से सुशोभित एक सुन्दर रमणीय नदी को पार कर रहा था। नीद का जल बहुत ठंडा था उसका पाट चैड़ा था। उसमें कई कुण्ड थे और वह किनारे पर उगे हुए बेंतके वृक्षों से आच्छादित हो रही थी। उसके तटपर क्रौच, कुरर और चक्रवाक आदि पक्षी कूज रहे थे। कछुए, मगर और मछलियों से भरी हुई वह नदी विस्तृत टापू से सुशोभित हो रही थी। उस बहुत बडे़ समूह को देखते ही यशस्विनी नलपत्नी सुन्दरी दमयन्ती उसके पास पहुंचकर लोगों की भीड़ में घुस गयी। उसका रूप उन्मत्त स्त्री का-सा पड़ता था, वह शोक से पीडि़त, दुर्बल, उदास और मलिन हो रही थी। उसने आधे वस्त्र से अपने शरीर को ढक रखा था और उसके केशों पर धूल जम गयी थी। वहां दमयन्ती को सहसा देखकर कितने ही मनुष्य भय से भाग खड़े हुए । कोई-कोई भारी चिंता में पड़ गये और कुछ लोग तो चिखने चिल्लाने लगे। कुछ लोग उसकी हंसी उड़ाते थे और कुछ उस में दोष देख रहे थे। भारत ! उन्हीं में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें उस पर दया आ गयी और उन्होंने उसका समाचार पूछा- ‘कल्याणि ! तुम कौन हो ? किसी स्त्री हो और इस वन में क्या खोज रही हों ? तुम्हें देखकर हम बहुत दुखी हैं। क्या तुम मानवी हो ? ‘कल्याणि ! सच बताओ, तुम इस वन, पर्वत अथवा दिशा की अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो ? हम सब लोग तुम्हारी शरण में आये हैं। ‘तुम यक्षी हो या राक्षसी कोई श्रेष्ठ देवांगना हो ? अनिन्दिते ! सर्वथा हमारा कल्याण एवं संरक्षण करो। कल्याणी ! यह हमारा समूह शीघ्र कुशलपूर्वक यहां से चला जाये और हमलोगों का सब प्रकार से भला हो, ऐसी कृपा करो’। उस यात्री के द्वारा जब ऐसी बात कही गयी, तब पति के वियोगजनित दुःख से पीडि़त साध्वी राजकुमारी दमयन्ती ने उन सब को इस प्रकार उत्तर दिया-‘इस जनसमुदाय के जो सरदार हों, उनसे, इस जनसमूह से तथा इसके (भीतर रहनेवाले और) आगे चलनेवाले जो बाल-वृद्ध और युवक मनुष्य हों, उन सबसे मेरा यह कहना है कि आप सब लोग मुझे मानवी समझें। मैं एक नरेशपुत्री, महाराज की पुत्रवधु तथा राजपत्नी हूं। अपने स्वामी के दर्शन की इच्छा से इस वन में भटक रही हूं। ‘विदर्भराज भीम मेरे पिता हैं, निषधनरेश महाभाग राजा नल मेरे पति हैं। मैं उन्हीं अपराजित वीर नल की खोज कर रहीं हूं।
« पीछे | आगे » |