महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 84-106
चतुःषष्टितम (64) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
‘आप दमयन्ती नाम से विख्यात मुझे उन्हीं नृपश्रेष्ठ नल की पत्नी जानें! मैं अपने स्वामी के दर्शन के लिये उत्सुक हो रही हूं। ‘मेरे पति महामना नल युद्धकाल में कुशल और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान् हैं। मैं उन्हीं की खोज करती हुई वन, पर्वत, सरोवर, नदी, गड्ढे और सभी जंगलों में दुखी होकर घूमती हूं। ‘भगवन् ! क्या आपके इस रमणीय तपोवन में निषधनरेश नल आये थे? ब्रह्मन् ! जिनके लिये मैं व्याघ्र, सिंह आदि पशुओं से सेवित अत्यन्त दारूण, भयंकर, घोर वन में आयी हूं। ‘यदि पुरूषरत्न नल के बिना जीवन धारण करने से मेरा क्या प्रयोजन है ? अब मैं पतिशोक से पीडि़त होकर न जाने कैसी हो जाऊंगी ? इस प्रकार वन में अकेली विलाप करती हुई भीमनन्दिनी दमयन्ती के सत्य का दर्शन करनेवाले उन तपस्वियों ने कहा-‘कल्याणि ! शुभे ! हम अपने तपोबल से देख रहे हैं, तुम्हारा भविष्य परम कल्याणमय होगा। तुम शीघ्र ही निषधनरेश नल का दर्शन प्राप्त करोगी।‘भीमकुमारी ! तुम शत्रुओं का संहार करनेवाले देश के अधिपति और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा नल को सब प्रकार से चिन्ताओं से रहित देखोगी। ‘तुम्हारे पति सब प्रकार के पापजनित दुःखांे से मुक्त और फिर सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होंगे। शत्रुदमन राजन नल फिर उसी श्रेष्ठ नगर का शासन करेंगे। वे शत्रुओं के लिये भयदायक और सुहृदों के लिये शोक नाश करनेवाले होंगे। कल्याणि ! इस प्रकार सत्कुल में उत्पन्न अपने पति को तुम (नरेश के पद पर प्रतिष्ठित) देखोगी’। नल का प्रियतमा महारानी राजकुमारी दमयन्ती से ऐसा कहकर वे सभी तपस्वी अग्निहोत्र और आश्रमसहित अदृश्य हो गये। उस समय राजा वीर सेन की पुत्रवधू सर्वांगसुन्दरी दमयन्ती वह महान् आश्चर्य की बात देखकर बड़े विस्मय में पड़ गयी। (उसके सोचा)-क्या मैंने कोई स्वप्न देखा है ? यहां यह कैसी अद्भुत घटना हो गयी ? वे सब तपस्वी कहां चले गये और वह आश्रममण्डल कहां है ? पवित्र मुसकानवाली भीमपुत्री दमयन्ती बहुत देरतक इन सब बातों पर विचार करती रही। तत्पश्चात् वह पति-शोकपरायण और दीन हो गयी तथा उसके मुखपर उदासी छा गयी। तदनन्तर ! वह दूसरे स्थान पर जाकर अश्रुगद्रद वाणी से विलाप करने लगी। उसने आंसू भरे नेत्रों से देखा, वहां से कुछ ही दूरपर एक अशोक का वृक्ष था। दमयन्ती उसके पास गयी। वह तरूवर अशोक फूलों से भरा था। उस वन में पल्लवों से लदा हुआ पक्षियों के कलकवों से गुंजायमान वह वृक्ष बड़ा ही मनोरम जान पड़ता था। (उसे देखकर वह मन-ही-मन कहने लगी) ‘अहो ! इस वन के भीतर अशोक बड़ा सुन्दर है। यह अनेक प्रकार के फल, फूल आदि अलंकारों से अलंकृत सुन्दर गिरी राज की भांति सुशोभित हो रहा है’। (अब उसने अशोक से कहा-) ‘प्रियदर्शन अशोक ! तुम शीघ्र ही मेरा शोक दूर कर दो। क्या तुमने शोक, भय और बाधा से रहित शत्रुदमन राजा नल को देखा है ? क्या मेरे प्रियतम, दमयन्ती के प्राणवल्लभ, निषधनरेश नलपर तुम्हारी दृष्टि पड़ी ? ‘उन्होंने एक साड़ी के आधे टुकड़े से अपने शरीर को ढंक रक्खा है, उनके अंगों की त्वचा बड़ी सुकुमार है। वे वीरवर नल भारी संकट से पीडि़त होकर इस वन में आये हैं।
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