महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 41-56
सप्तचत्वारिंश(47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
हानि, लाभ, रक्षा और संग्रह को जानकर तथा सदा परस्पर सम्बन्धित ऐश्वर्य और भोग को भी भलीभांति समझकर बुद्धिमान राजा को शत्रु के साथ संधि या विग्रह करना चाहिये; इस विषय पर विचार करने के लिये बुद्धिमानों का सहारा लेना चाहिये। प्रतिभाशाली बुद्धि बलवान् को भी पछाड़ देती है। बुद्धि के द्वारा नष्ट होते हुए बल की भी रक्षा होती हैं । बढ़ता हुआ शत्रु भी बुद्धि के द्वारा परास्त होकर कष्ट उठाने लगता है। बुद्धि से सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता हैं,वह सर्वोतम होता है। जिसने सब प्रकार के दोषों का त्याग कर दिया हैं, वह धीर राजा यदि किसी वस्तु की कामना करे तो वह थोड़ा-सा बल लगानेपर भी अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। जो आवश्यक वस्तुओं से सम्पन्न होने पर भी अपने लिये कुछ चाहता है अर्थात् दूसरों से अपनी इच्छा पूरी कराने की आश रखता हैं, वह लोभी और अंहकारी नरेश अपने श्रेय का छोटा-सा पात्र भी नहीं भर सकता।
इसलिये राजा को चाहिये कि वह सारी प्रजा पर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे।वह दीर्घकाल तक प्रजा को सताकर उस पर बिजली के समान गिरकर अपना प्रभाव न दिखावे। विद्या, तप तथा प्रचुर धन-ये सब उद्योग से प्राप्त हो सकते हैं। वह उद्योग प्राणियों में बुद्धि के अधीन होकर रहता है; अत: उद्योग को ही समस्त कार्यों की सिद्धि का पर्याप्त समझे। अत: जहां जितेन्द्रीयों में बुद्धिमान एवं मनस्वी महर्षि निवास करते हैं,[१] जिसमें इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता के रुप में इन्द्र, विष्णु एवं सरस्वती का निवास हैं तथा जिसके भीतर सदा सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन-निर्वाह का आधार हैं, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि उस मानव-देह की अवहेलना न करे।। राजा लोभी मनुष्य को सदा ही कुछ देकर दबाये रखे; क्योंकि लोभी पुरुष दूसरे के धन से कभी तृप्त नहीं होता। सत्कर्मो के फलस्वरुप सुख का उपभोग करने के लिये तो सभी लालायित रहते है; परंतु जो लोभी धनहीन हैं, वह धर्म और काम दोनों को त्याग देता हैं। लोभी मनुष्य दूसरों के धन, भोग-सामग्री, स्त्री-पुत्र और समृद्धि सबको प्राप्त करना चाहता है। लोभी में सब प्रकार के दोष प्रकट होते हैं; अत: राजा उसे अपने यहां किसी पद पर स्थान न दे। बुद्धिमान् राजा नीच मनुष्य को देखते ही अपने यहां से दूर हटा दे और यदि उसका वश चले तो वह शत्रुओं के सारे उद्योगों तथा कार्योंका विध्वंस कर डाले। पाण्डुनन्दन ! धर्मात्मा पुरुषों में जो विशेष रुप से सम्पूर्ण विषयों का ज्ञाता हो्, उसी को मन्त्री बनावे और उसकी सुरक्षा का विशेष प्रबन्ध करें। प्रजा का विश्वास-पात्र और कुलीन राजा नरेशों को वश में करने में समर्थ होता है।। राजा के जो शास्त्रोक्त धर्म हैं, उन्हें संक्षेप से मैंने यहां बताया है। तुम अपनी बुद्धि से विचार करके उन्हें हदय में धारण करो।जो उन्हें गुरु से सीखकर हदय में धारण करता और आचरणमें लाता है, वही राजा अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ होता है। जिन्हें अन्याय से उपार्जित, हठ से प्राप्त तथा दैव के विधान के अनुसार उपलब्ध हुआ सुख विधि के अनुरुप प्राप्त हुआ-सा दिखायी देता हैं, राजधर्म को न जानने वाले उस राजा की गति नहीं है तथा उसकापरम उतम राज्य सुख चिरस्थायी नहीं होता। उक्त राजधर्म के अनुसार संधि-विग्रह आदि गुणों के प्रयोग में सतत सावधान रहने वाला नरेश धनसम्पन्न, बुद्धि और शील के द्वारा सम्मानित, गुणवान् तथा युद्ध में जिनका पराक्रम देखा गया है, उन वीर शत्रुओं को भी कूट कौशलपूर्वक नष्ट कर सकता है।
राजा नाना प्रकार की कार्यपद्धतियों द्वारा शत्रु-विजय के बहुत-से उपाय ढूंढ निकाले। अयोग्य उपाय से काम लेने का विचार न करे, जो निर्दोष व्यक्तियों के भी दोष देखता है, वह मनुष्य विशिष्ट सम्पति, महान् यश और प्रचुर धन नहीं पा सकता। सुहदों में से जो मित्र प्रेमपूर्वक साथ-साथ एक कार्य में प्रवृत होते हों और साथ-ही-साथ उससे निवृत होते हों, उन्हें अच्छी तरह जानकरउन दोनोंमें से जो मित्र लौटकर मित्र का गुरुतर भार वहन कर सके, उसी को विद्वान पुरुष अत्यन्त स्नेही मित्र मानकर दूसरों के सामने उसका उदाहरण दें। नरेश्वर ! मेरे बताये हुए इन राजधर्मो का आचरण करो और प्रजा के पालन में मन लगाओ; इससे तुम सुखपूर्वक पुण्यफल प्राप्त करोगे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् का मूल धर्म है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इमावेव गौतमभरद्वाजौ’ इत्यादि श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों का गौतम, भरद्वाज, वसिष्ठ और विश्वामित्र आदि महर्षियों ने सम्बन्ध सूचित होता है।