महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 30-37
अष्टादशाधिकद्विशततम (218) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
यदि शरीर की मृत्यु के साथ आत्मा की भी मृत्यु मान ली जाय, तब तो उसके किेये हुए कर्मों का भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मों का फल भोगनेवाला कोई नहीं रह जायगा और देह की उत्पत्ति में अकृताभ्यागम (बिना किये हुए कर्म का ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा) मानने का प्रसंग उपस्थित होगा । ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्मा की सत्ता अवश्य है। नास्तिकों की ओर से जो कोई हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं, वे सब मूर्त पदार्थ हैं । मूर्त जड पदार्थ से मूर्त जड पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है । यही उन दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध होता है । जैसे काष्ठ से अग्नि की उत्पत्ति (यदि पंचभूतों से आत्मा की तब तो पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थो से आकाश की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो असम्भव है) । आत्मा अमूर्त पदार्थ है और देह मूर्त; अत: अमृर्त की मूर्त के साथ समानता अथवा मूर्त भूतों के संयोग से अमूर्त चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कुछ लोग अविद्या, कर्म, तृष्णा, लोभ, मोह तथा दोषों के सेवन को पुनर्जन्म में कारण बताते हैं। अविद्या को वे क्षेत्र कहते हैं । पूर्व जन्मों का किया हुआ कर्म बीज है और तृष्णा अंकुर की उत्पत्ति करानेवाला स्नेह या जल है । यही उनके मत में पुनर्जन्म का प्रकार है। वे अविद्या आदि कारणसमूह सुषुप्ति और प्रलय में भी संस्काररूप में गूढ़भाव से स्थित रहते हैं । उनके रहते हुए जब एक मरणधर्मा शरीर नष्ट हो जाता है, तब उसी से पूर्वोक्त अविद्या आदि के कारण दूसरा शरीर उत्पन्न हो जाता है । तब ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि निमित्त दग्ध हो जाते है, तब शरीर नाश के पश्चात् सत्व (बुद्धि) का क्षयरूप मोक्ष होता है, ऐसा उनका कथन है। (उपर्युक्त नास्तिक मत में आस्तिक लोग इस प्रकार दोष देते हैं-) क्षणिक विज्ञानवादी की मान्यता के अनुसार शरीर से परक्षणवर्ती शरीर रूप, जाति, धर्म और प्रयोजन सभी दृष्टियों से भिन्न हैं । ऐसी अवस्था में यह वही है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा (स्मृति) नहीं हो सकती । अथवा भोग, मोक्ष आदि सब कुछ बिना इच्छा किये ही अकस्मात् प्राप्त हो जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा (उस दशा में यह भी कहा जा सकता है कि मोक्ष की इच्छा करनेवाला दूसरा है, साधन करनेवाला दूसरा है और उससे मुक्त होनेवाला भी दूसरा ही है )। यदि ऐसी ही बात है, तब दान, विद्या, तपस्या और बल से किसी को क्या प्रसन्नता होगी ? क्योंकि उसका किया हुआ सारा कर्म दूसरे को ही अपना फल प्रदान करेगा (अर्थात् दान करते समय जो दाता है, वह क्षणिक विज्ञानवाद के अनुसार फल-भोगकाल में नहीं रह जाता, अत: पुण्य या पाप एक करता है और उसका फल दूसरा भोगता है)। (यदि कहें, यह आपत्ति तो अभीष्ट ही है कि कर्म करते समय जो कर्ता है, वह फल भोग काल में नहीं है । एक विज्ञान से उत्पन्न हुआ दूसरा विज्ञान ही फल भोगता है, तब तो) इस जगत् में यह देवदत नामक पुरूष यज्ञदत आदि दूसरों के किये हुए अशुभ कर्मों से दुखी एवं परकृत शुभ कर्मों से सुखी हो सकता है (क्योंकि जब कर्ता दूसरा और भोक्ता दूसरा है, तब तो किसी का भी कर्म किसी को भी सुख-दु:ख दे सकता है) । उस दशा में दृश्य और अदृश्य का निर्णय भी यही होगा कि जो पूर्वक्षण में दृश्य था, वह वर्तमान क्षण में अदृश्य हो गया तथा जो पहले अदृश्य था, वही इस समय दृश्य हो रहा है।
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