महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 34-43

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द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद

तब विश्वरूप ने उनसे कहा- ‘आज ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं का अभाव हो जायगा।’ ऐसा कहकर वे मन्त्रों का जप करने लगे। उन मन्त्रों से उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। तीन सिरों वाले विश्वरूप अपने एक मुख से सारे संसार के क्रियानिष्ठ ब्राह्मणों द्वारा विधिपूर्वक यज्ञों में होमे गये सोमरय को पी लेते थे, दूसरे से अन्न खाते थे और तीसरे से इन्द्र आदि देवताओं के तेज को पी लेते थे। इन्द्र ने देखा, विश्वरूप का सारा शरीर सोमपान से परिपुष्ट हो रहा है। यह देखकर देवताओं सहित इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई। तदनन्तर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता ब्रह्माजी के पास गये और इस प्रकार बोले- ‘भगवन् ! विश्वरूप सम्पूर्ण यज्ञों में विधिपूर्वक होमे गये सोमरस को पी लेते हैं। हम यज्ञभाग से वंचित हो गये। असुर पक्ष बढत्र रहा है और हम लोग क्षीण होते जा रहे हैं; अतः आपको अब हम लोगों का कल्याण-साधन करना चाहिये’। तब ब्रह्माजी ने उन देवताओं से कहा - ‘भृगुवंशी दधीचि ऋषि तपस्या करते हैं। उनके पास जाकर ऐसा वर माँगो, जिससे वे अपने शरीर को त्याग दें। फिर उन्हीं की हड्डियों से वज्र नामक अस्त्र का निर्माण करो’।। तब देवता वहाँ गये, जहाँ भगवान दधीचि ऋषि तपस्या करते थे। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले - ‘भगवन् ! आपकी तपस्या सकुशल चल रही है न ? उसमें कोई बाधा तो नहीं आती है ?’ दधीचि ने इन देवतसओं से कहा -‘आप लोगों का स्वागत है। बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप जो कहेंगे, वही करूँगा’। देवता बोले - ‘भगवन् ! आप लोकहित के लिये अपने शरीर का परिल्याग कर दें’। यह सुनकर दधीचि के मन में पूर्ववत् सोत्साह बना रहा, तनिक भी उदासी नहीं हुई। वे सुख और दुःख में समान भाव रखने वाले महान् योगी थे। उन्होंने आत्मा को परमात्मा में लगाकर अपने शरीर का परित्याग कर दिया। उनके परमात्मा में लीन हो जाने पर उनकी उन अस्थियों का संग्रह करके धाता ने वज्रास्त्र का निर्माण किया। ब्राह्मण की हड्डी से बने हुए उस अभेद्य एवं दुर्जय वज्र से, जिसमें भगवान विष्णु प्रविष्ट हुए थे, इन्द्र ने विश्वरूप का वध कर डाला और उनके तीनों सिरों को काट दिया। तदनन्तर त्वष्टा प्रजापति ने विश्वरूप के शरीर का मन्थन करके जिसे उत्पन्न किया था, उस अपने वैरी वृत्रासुर का भी इन्द्र ने उसी वज्र से संहार कर डाला। अब इन्द्र के पास ब्रह्महत्या उपस्थित हुई। उसके भय से इन्द्र ने देवराज पर का परित्याग कर दिया और मानसरोवर के जल में उत्पन्न हुई एक शीतल कमलिनी के पास जा पहुँचे। वहाँ अणिमा आदि ऐश्वर्य के योग से इन्द्र अणुमात्र रूप धारण करके कमलनाल की ग्रन्थि में प्रविष्ट हो गये। ब्रह्महत्या के भय से त्रिलोकीनाथ शचीपति इन्द्र के भागकर अदृश्य हो जाने पर इस जगत् का कोई ईश्वर नहीं रहा। देवताओं में रजोगुण और तमोगुण का आवेश हो गया। महर्षियों के मन्त्र अब कुछ काम नहीं दे रहे थे। राक्षस बढ़ गये। वेदों का स्वाध्याय बंद हो गया। तीनों लोग इन्द्र से आरक्षित होने के कारण निर्बल एवं सुगमता से जीत लेने योग्य हो गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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