जीवाणु विज्ञान

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जीवाणु विज्ञान
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 19-25
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कामेवर सहाय भार्गव

जीवाणु विज्ञान जीवाणुओं के अध्ययन से संबंधित है, पर प्राय: जीवाणुविज्ञान अणुजीव विज्ञान (Microbiology) के पर्यायावाची अर्थ में भी प्रयुक्त होता हैं। मनुष्य के शरीर में जीवाणु की उपस्थिति का पता सर्वप्रथम 1880 ई. में लगा और जीवाणुओं का अध्ययन चिकित्सा-विज्ञान का अंग बना। कुछ ऐसे जीवाणु भी मालूम हैं, जो मनुष्य के शरीर में रहते हुए उसे कोई हानि नहीं पहुंचाते और उपयोगी हैं। सच तो यह है कि मनुष्य का अस्तित्व जीवाणुओं की क्रियाओं पर ही आधारित है। जीवाणुओं के बिना पृथ्वी परजीव जंतु एवं पौधे जीवित नहीं रह सकते, क्योंकि इनका अस्तित्व भूमि के उपजाऊपन पर निर्भर है तथा पृथ्वी का उपजाऊपन पृथ्वी में रहनेवाले इन सूक्ष्म जीवों की क्रियाओं पर निर्भर हैं।

जीवाणु विज्ञान का प्रारंभ

इसका प्रारंभ सूक्ष्मदर्शी (microscope) के विकास के साथ साथ हुआ। एक डच वैज्ञानिक ए. वान लेवेनहूक ने सर्व-प्रथम अपने निरीक्षणों का सही सही चित्रों के साथ वर्णन किया। संभव है, इसके पूर्व भी जीवाणुओं को किसी ने देखा हो, किंतु वर्णन इसी ने किया। वे जीव कुछ बड़े आकार के जीवाणु, जैसे बैसिलस बक्कालिस (Bacillus buccalis) तथा स्पाइरिलम स्पूटिजिनम (Spirillum sputigenum) प्रारूप प्रतीत होते हैं।

यह स्पष्ट है कि जीवाणु स्पष्ट रूप से दिखाई देने से पहले ही पहिचान लिए गए थे। ओ. एफ. मूलर (O. F. Muller) ने अनेक आकार सन्‌ 1773 में ही देख लिए थे। एफ. एरेनबर्ग (F. Ehreaberg) ने सन्‌ 1830 में जीवाणुओं की भिन्नता का पता लगाया और इनका विभाजन प्रस्तुत किया। इन्होंने सन्‌ 1838 में जीवाणुओं की कम से कम 16 जातियों को प्रस्तावित कर उनको चार समूहों या जेनरा में विभाजित किया। जीवाणुओं के आकार का नवीन एवं परिशुद्ध ज्ञान एफ. जे. कोन (F. J. Cohn) के अनुसंधान द्वारा प्राप्त हुआ। इन्होंने 1872 ई. में जीवाणुओं का वर्गीकरण प्रकाशित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि शइजोमाइसीटीस (Schizomycetes) में बीजाणु उत्पन्न होने की सत्यता कोन ने मालूम की। इन्होंने सन्‌ 1876 में जीवाणुओं का अंकुरण देखा तथा रौबर्ट कॉख (Robert Koch), ओo ब्रेफेल्ट पीo वॉन टीघम (P. von Tiegham) तथा ए. डी. बैरी (A. de Bary) ने तथ्य की पुष्टि की।

कोन द्वारा प्रेषित 'आकार की स्थिरता' का सिद्धांत सन्‌ 1873 में आलोचित हुआ, जब कि लैंकैस्टर (Lancaster) ने निर्देशित किया कि उनका बैक्टीरियम रूबेसेंस (Bacterium rubescens) कई ऐसी आकृतियों से होकर बढ़ता है जिनको कोन ने विभिन्न जातियों में ही नहीं बल्कि विभिन्न जेनरा में रखा था। यथार्थ में विभिन्न आकार जैसे जीवाणु, एकल गोलाणु (Micrococcus), दंडाणु (Bacillus) तथा लेप्टो्थ्राक्स (Leptothrix) एक जीवन इतिहास की विभिन्न अवस्थाओं में पाए जाते हैं। जे. लिस्टर (J. Lister) ने इस विचार की पुष्टि की। टीo बिलब्रीथ (T. Billbroth) ने सन्‌ 1874 में यह विचार प्रगट किया कि विभिन्न जीवाणु केवल एक जीव की विभिन्न दशाएँ हैं और उसने इस जीव का नाम कोको बैक्टीरिया सेप्टिका (Cocco Bacteria septica) रखा। उस समय से जीवाणुओं की बहुरूपता पर पूर्ण रूप से तर्क-वितर्क किया गया। इस पर साधारणत: सहमति है कि कुछ जीवाणु अपने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में कई प्रकार की कोशिकाएँ प्रदर्शित करते हैं परंतु अधिकतर जीवाणु अपने जीवन काल में केवल एक प्रकार की कोशिकाओं का प्रदर्शन करते हैं।

जीवाणुओं की आकारिकी के साथ साथ उनका किण्वन (fermentation) तथा उनका रोगों से क्या संबंध है, इसका पत लगाने का भी प्रयत्न किया गया। लुई पैस्टर (L. Pasteur) ने सन्‌ 1857 में दिखलाया कि लैक्टिक (Lactic) किण्वन एक जीवधारी की उपस्थिति पर निर्भर है। वस्तुत: यह टीo श्वान (T. Schwann, 1843) के अनुसंधान से ज्ञात हुआ कि किण्वन एवं पूतिक्रिया (Putrefaction) वायु में पाए जानेवाले जीवधारियों की उपस्थिति से संबंधित हैं। सन्‌ 1862 में पैस्टर ने बिना किसी उचित शंका के प्रदर्शित किया कि यूरिया (urea) का ऐमोनियामय किण्वन एक सूक्ष्म जीवाणु की क्रिया के कारण होता है। उसी वर्ष पैस्टर ने दिखलाया कि जीवाणु या किसी अन्य जीवधारी के अभाव में पूतिक्रिया नहीं हो सकती।

जीवाणु प्रविधि की आधुनिक विधियों का प्रादुर्भाव सन्‌ 1870 से 1885 के बीच हुआ। सन्‌ 1871 में विगर्ट (Weigert) ने अभिरंजकों (stains) की उपयोगिता बतलाई तथा सन्‌ 1881 में रौबर्ट कॉख ने जीवधारियों के मिश्रण को पोषक पदार्थ की प्याली पर अलग अलग करने की विधि खोज निकाली। एक अत्यंत महत्वपूर्ण आविष्कार सन्‌ 1880 में सामने आया जब पैस्ट ने सर्वप्रथम यह दिखलाया कि 42 सेंo 43 सेंo ताप पर रखे गेए बैसिलस ऐं्थ्रोसिस (Bacillus anthracis) के संवर्धन ने कुछ पीढ़ी पश्चात्‌ अपनी तीव्रता त्याग दी तथा उसमें चूहे को मारने की भी शक्ति नही रही। इस खोज ने सीरम चिकित्सा की नींव डाली।

सन्‌ 1888 में हेलब्रीगल (Helbriegel) तथा विल्फार्थ (Wilfarth) ने लेग्यूमीनोसी (Leguminosae) वर्गीय पौधों तथा जीवाणुओं में सहजीवी संबंध दिखलाया। सन्‌ 1901 में बाइरिंक (Beijerinck) ने स्वाश्रय नाइट्रोजन-अनुर्वधक जीवाणु एजोटेबेक्टर (Azotobacter) की खोज की तथा भूमि को उपजाऊ बनाने में उसकी उपयोगिता का वर्णन किया। 19वीं शताब्दी के अंत में ई. सीo हैंसन (E. C. Hansen) ने जीवाणुओं के विशुद्ध संवर्धन के अध्ययन की नींव डाली तथा औद्योगिक किण्वन का अध्ययन प्रारंभ किया। उन्हीं दिनों उत्तरी अमरीका में बरिल (Burrill) ने जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न नाशपाती के एक रोग का वर्णन किया।

जीवाणुओं का स्वरूप

जीवाणु अति सूक्ष्म जीवधारी हैं। ये इतने अधिक सूक्ष्म होते हैं कि छापे के एक विराम बिंदु में लगभग 2,50,000 जीवाणु समा सकते हैं।

जीवाणु जीवद्रव्य (protoplasm) से निर्मित एककोशीय जीव हैं। ये एककोशिका भित्ति से घिरे रहते हैं तथा पौधे माने जाते हैं। इनमें हरे रंग का द्रव्य नहीं होता, इस कारण ये उच्च पौधों से भिन्न हैं। जीवाणुओं में नाभिक की समस्या लंबे समय तक मतभेद का विषय बनी रही। साधारणत: इनमें अन्य कोशिकाओं की भाँति निश्चित नाभिक नहीं होता। विभिन्न आधुनिक परीक्षणों से संकेत मिलता है कि इनमें निश्चित नाभिक पिंड होता है तथा नि:संदेह एक या दो नाभिकीय कणिकाएँ अथवा गुणसूत्र (chromosomes) रहते हैं। बीजाणु बनाने में इन नाभिकीय कणिकाओं का व्यवहार नाभिक जैसा ही है। इस नाभिक पदार्थ में डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लीइक अम्ल (Deoxyribose nucleic acid) होता है जो कोशिका के अंदर ही विशिष्ट प्रकार के नाभिक रंजक पदार्थों द्वारा पहचाना जा सकता है।

जीवाणुओं की आकृति सरल होती है। इसके तीन मुख्य प्रकार हैं-गोलाकार या कोकस (Coccus), शलाकार या बैसिलस तथा सर्पिल, घुमावदार या स्पाइरिलम (Spirillum)। जीवाणुओं के कुछ आकार चित्र 1. में दिखाए गए हैं। बहुत से जीवाणु

कोड़े जैसे उपांगों से युक्त होते हैं। ये उपांग जीव द्रव्य के प्रक्षेप (projections) होते हैं तथा इनको कशाभ (flagella) कहते हैं (चित्र 2)। कशाभ तेजी से हिलने की क्रिया द्वारा जीवों को द्रव में आगे बढ़ाते हैं।

कुछ जीवाणुओं में यह क्षमता होती है कि वे छोटे अंडाकार या गोलाकार रूप धारण कर लें। इन प्रतिरोधी रूपों को बीजाणु (spores) या एंडोस्पोर (endospore) कहते हैं। ये एंडोस्पोर

प्रतिकूल वातावरण की स्थिति में भी जीवित रहते हैं। कुछ जीवों में बीजाणु केवल उस समय उत्पन्न होते हैं जब कि विभाजन (fission) विधि द्वारा असंतोषजनक हो जाती है। यह स्थिति अनावृष्टि, अत्यधिक गर्मी या ठंडक अथवा विषैले पदार्थ की उपस्थिति से हो जाती है। अन्य जीवों में बीजाणु बनाने की क्रिया व्यवस्थित रूप से होती है और यह क्रिया ताप पर निर्भर है। बीजाणु बनाने का प्रथम चिह्न जीव के शरीर में एक हल्के धब्बे का प्रगट होना है। यह धब्बा आकार में बढ़कर शीघ्र ही एक गोल या अंडाकार आकृति बनाता है, जिसके चारों ओर एक भित्ति होती है। यह भित्ति पहले पतली रहती है, फिर शीघ्र मोटी होने लगती है प्रौढ़ होने तक इसकी मोटाई बढ़ती रहती है। बीजाणुओं के बनने के बाद कोशिका के शेष अंग लुप्त हो हाते हैं। ये जीवाणु या एंडोस्पोर गर्मी या सूखे के प्रतिरोधक होते हैं तथा इनके द्वारा जीव प्रतिकूल स्थिति में कई वर्षों तक जीवित रहता है। अनुकूल स्थिति के लौटने पर बीजाणुओं का अंकुरण दो में से एक विधि द्वारा प्रारंभ हो जाता है। बीजाणु भित्ति या तो पतली, मुलायम और लचीली हो जाती है तथा कोशिका का आकार साधारण हो जाता है अथवा बीजाणु भित्ति कुछ स्थानों पर पतली होकर टूट जाती हैं। इस टूटे हुए भाग से आंतरिक वस्तुएँ बाहर आकर सक्रिय रूप ग्रहण करती हैं। चूँकि एक कोशिका केवल एक बीजाणु बनाती है, अत: यह बिना विभाजन के प्रजनन की रीति हुई।

जीवाणुओं में प्रजनन या विभाजन

साधारणत: जीवाणु द्विविभाजन (Binary fission) द्वारा प्रजनन करते हैं। यह रीति इतनी विशिष्ट है कि जीवाणु विभाजन कवक (fungi) कहलाते हैं। जब जीवाणु की कोशिका विभाजित होने को होती है तो कोशिका के पदार्थ तब तक बढ़ते हैं जब तक उसका आयतन दूना नहीं हो जाता। गोलाकार से अंडाकार हो जाते हैं, शलाकावत्‌ आकार अपनी दूनी लंबाई तक बढ़ते हैं। कोशिका मध्य में संकुंचित हो जाती है। यह संकुंचन गहरा होता जाता है तथा अंत में कोशिका के दो भाग हो जाते हैं जिनके बीच एक भित्ति बन जाती है। यह भित्ति संकुंचन की रेखा पर बनती है। प्रारंभ में दो नई कोशिकाएँ एक दूसरे से लगी रहती हैं तथा शीघ्र ही अलग हो जाती हैं और तब अनुजात (daughter) कोशिकाएँ कहलाती हैं। ये एक दूसरे की तथा मातृकोशिका की प्रतिरूप होती हैं। अधिकतर जीवाणुओं में केवल विभाजन द्वारा ही प्रजनन होता है।

लैंगिक जनन अभी तक जीवाणुओं में नहीं पाया गया। यह माना गया है कि लैंगिक नाभिकों के सायुज्य (fusion) से जाति (Species) की स्थिरता बनी रहती हैं। संभवत: लैंगिक जनन की अनुपस्थिति के कारण ही जीवाणुओं की नई जातियाँ अथवा प्रभेद बन जाते हैं। कुछ वर्ग के जीवाणु जेसे एशेरिकिया कोलाई (Escherichia coli) द्विविभाजन के अतिरिक्त अन्य विधियों द्वारा प्रजनन करते हैं। ऐसा देखा गया है कि यदि एक ही जाति की दो प्रकार की पैतृक कोशिकाएँ, जो सूक्ष्म रूप से लक्षणों में भिन्न होती हैं, एक ही संवर्धन नली में उगाई जाएँ तो अधिकतम नई कोशिकाएँ एक या दूसरी पैतृक कोशिकाओं के समान होंगी पर कुछ में दोनों प्रकार की पैतृक कोशिकाओं के लक्षण मिलते हैं। अत: स्पष्ट है कि कुछ कोशिकाओं में जीन (gene) पदार्थ का पुनर्मिलाप हुआ। इस विधि में दो कोशिकाएँ संपर्क में आती हैं और फिर ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो दूसरे जीवों में लैंगिक जनन के समान हैं।

कुछ ऐकटिनोमाइसिटेलीज़ (Actinomycetales) जीवाणुओं में जनन की दूसरी विधि पाई जाती हैं, जिसमें जीवाणुओं की तंतु वृद्धि (filamentous growth) होकर बाद में छोटे छोटे एकांगों (units) में विभाजन हो जाता है। ये एकांग विकसित होने पर सामान्य कोशिका बनाते हैं। कुछ जीवाणु, जैसे हाइफोमाइक्रोबिएलीज (Hyphomicrobiales) मुकुलन (budding) द्वारा जनन की क्षमता रखते हैं। इसमें मूल कोशिका से एक उद्वर्ध (outgrowth) मुकुलित होता है, जो कुछ समय की वृद्धि के बाद मूल से एक नई कोशिका के रूप में अलग हो जाता है। जीवाणु एंडोस्पोर का अंकुरण, जिससे वर्धी-कोशिकाएँ बनती हैं, गुणन द्वारा जनन नहीं है, क्योंकि एक बीजाणु केवल एक ही कोशिका उत्पन्न करता है और संपूर्ण संख्या में कोई वृद्धि नहीं होती।

विभाजन गति

वृद्धि की अनुकूल परिस्थियों में जीवाणु के विभाजन की गति बहुत ही तीव्र होती है। 20 या 30 मिनट में कोशिका को विभाजित होते पाया गया है। यदि प्रत्येक 30 मिनट बाद विभाजन के अनुकूल परिस्थिति हो, तो एक कोशिका पहले घंटे पश्चात्‌ 4, दूसरे के बाद 16, तीसरे के बाद 64 और 15वें की समाप्ति तक 1,00,00,00,000 कोशिकाएँ बनाएगी, जो कि 1 घन मिलीमीटर स्थान घेरेंगी। जीवाणुओं के ऐसे समूह को मंडल कहते हैं, जो सहज ही में आँखों से दिखाई देते हैं। यदि यह विभाजन निरंतर चले तो एक कोशिका का वंश 35वें घंटे की समाप्ति तक 1,000 घट मिलीमीटर स्थान घेरेगा। जीवाणुओं की वृद्धि के लिये लंबे समय तक कभी भी परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहतीं। इनके समूह की उत्पत्ति के लिये उचित खाद्य पदार्थ आवश्यक हैं। आहार की न्यूनता के अतिरिक्त दूसरे कारक भी हैं। संख्या की वृद्धि के साथ साथ जीवाणु क्रियाओं के उपोत्पादक (Byproducts) भी एकत्रित होते जाते हैं, जो वृद्धि में अवरोध पैदा करते हैं। जीवाणु क्रियाओं के बहुत से उपोत्पद अम्लीय होते हैं और अम्ल साधारणत: जीवाणुओं की वृद्धि को रोकते हैं। इस अम्ल का संचय प्रत्येक दिन दूध के खट्टे होने तथा दही बनने की क्रिया में देखा जाता है। इस क्रिया में जीवाणु दूध की शक्कर को लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) में बदलते हैं।

जीवाणु की वृद्धि को प्रभावित करनेवाले कारक

भोजन

इसका होना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। देखा गया है कि जीवाणुओं का पोषण दूध सर्वोत्तम प्रकार से कर सकता है। वनस्पति या प्राणी की प्रत्येक कोशिका आहार में निश्चित पोषकतत्व चाहती हे जिनमें मुख्य हैं शक्कर या कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन या दूसरे नाइट्रोजन पदार्थ, फॉस्फोरस, सल्फेट क्लोराइड, कैल्सियम, मैग्नीशियम, पोटासियम, सोडियम और अन्य पदार्थ लेश मात्रा में। उच्चवर्गीय पौधे वातावरण के कार्बन डाइऑक्साइड से आवश्यक कार्बोहाड्रेट के निर्माण की क्षमता रखते हैं। पर्णहरिम (chlorophyll) की अनुपस्थिति के कारण दो को छोड़कर सभी जीवाणु कार्बन के लिये दूसरे स्रोत पर आश्रित हैं। ये कुछ शक्कर या दूसरे पदार्थ जैसे उच्च ऐलकोहल चाहते हैं जो सहज में शक्कर में बदले जा सकें और जिससे ये अपने शारीरिक पदार्थों का निर्माण कर सकें। एक प्रकार का जीवाणु, जिसको बैसिलस ऑलिगोकार्बोफिलस (B.oligocarbophilus) कहते हैं, कार्बन मोनोक्साइड से कार्बन प्राप्त कर सकता है और दूसरा बैसिलस मैथेनिकस (B. methanicus) मार्श गैस से। नाइट्रीकारी जीवाणु (nitrifying) और कुछ गंधक जीवाणु कार्बन डाइऑक्साइड के आत्मीकरण के लिये आवश्यक शक्ति क्रमश: ऐमोनिया और सल्फेट में ऑक्सीकरण से प्राप्त कर सकते हैं।

अधिकतक जीवाणु नाइट्रोजन को तभी ग्रहण कर सकते हैं, जब वे दूध प्रोटीन और मांस जैसे कार्बनिक पदार्थों से संयुक्त हों। नाइट्रीकारी जीवाणु इस प्रकार के नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर सकते, लेकिन वे अपना प्रोटीन सरल अणु जैसे ऐमोनिया और नाइट्रस अम्ल से बनाने में सक्षम होते हैं। दूसरे जीवाणु जो नाइट्रोजन अनुबंधक (fixer) के नाम से ज्ञात हैं वातावरण के नाइट्रोजन तत्व का उपयोग कर सकते हैं। दूसरे पदार्थ जैसे फॉस्फ़ोरस गंधक और अकार्बनिक अवयव इतनी अल्प मात्रा में आवश्यक हैं कि जीवाणु की वृद्धि के लिये पर्याप्त मात्रा प्रकृति में ही उपस्थित हैं।

नमी

4-5 प्रति शत से कम जल की मात्रा में जीवाणुओं की वृद्धि नहीं हो सकती तथा 25-40 प्रति शत जल की मात्रा में वे सब से अधिक सक्रिय होते हैं।

मुख की अनुपस्थिति के कारण जीवाणुओं की वृद्धि के लिये नमी अत्यंत आवश्यक है और उन्हें पूर्ण आहार विलीन अवस्था में कोशिका भित्ति से विसरण विधि द्वारा प्राप्त होता है, अत: बिना पर्याप्त जल के आहार का अंतर्वाह (Inflow) तथा मल का नि:स्राव (outflow) असंभव हो जाता है। सूखने के कारण होनेवाली जीवाणुओं की मृत्यु को जल की अल्प मात्रा ही रोक देती हैं।

ताप

प्रसामान्य ताप कम करने से उच्चवर्गीय पौधों और प्राणियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता परंतु बहु से जीवाणु कम ताप पर जीवित रहते हैं। अधिकतम जीवाणुओं की वृद्धि 5o-6o सेंo के बीच समाप्त हो जाती है। कुछ समुद्री और कुछ भूमि में रहनेवाले जीवाणु 0o सेंo से नीचे के ताप पर सक्रिय रहते हैं। अनुकूलतम ताप सामान्यत: जीव के प्राकृतिक वास पर निर्भर रहता है, जो भूमि में रहनेवालों के लिये 25o सेंo और पराश्रयी जीवाणुओं के लिये 37o सेंo है। अधिकतम ताप जिसके ऊपर बहुत से जीवों की वृद्धि संभव नहीं है 38o-48o सेंo के बीच है। किसी जीव की मृत्यु साधारणत: अधिकतम ताप से 10o-15 सेंo ऊपर के ताप पर होती है। ताप से होनेवाली मृत्यु ताप के समय पर निर्भर है। अधिक समय तक मंद ताप का वही प्रभाव होता है जो ऊँचे ताप का थोड़े समय तक। न्यूनतम ताप जीवाणुओं की वृद्धि को रोकता है पर उनका नाश नहीं करता। टाइफाइड और दूसरे रोग-जनित जीवाणु बर्फ के ताप पर जीवित रहते हैं। कुछ जीवाणु द्रव हवा और द्रव हाइड्रोजन के -- 253o सेंo ताप पर रहने के बाद भी प्रसामान्य ताप पर लौटने पर वृद्धि की क्षमता रखते हैं। तापरागी (thermophilic) जीवाणु बीजाणु बनाते हैं। इन जीवाणुओं की वृद्धि के लिये न्यूनतम ताप दूसरे जीवाणुओं के अधिकतम ताप से 10o सेंo अधिक है। बैक्टीरियम लुडविगाई (Bacteriumludwigi) का न्यूनतम ताप 50o सेंo, अनुकूलतम 55o-57o सेंo और अधिकतम ताप 80o सेंo है। ऐसे जीवाणु घास के चट्टों में आग लगने का कारण बनते हैं। यदि घास नम हो तो उसमें किण्वन होने से भाप निकलती है और इतनी गर्म हो जाती है कि कुछ गैसें प्रज्वलनांक पर पहुँच जाती हैं और चट्टे में आग लग उठती है।

ऑक्सीजन से संबंध

ऑक्सीजन के संबंध में भी जीवाणु भिन्नता प्रकट करते हैं। कुछ जीवाणु केवल हवा की उपस्थिति में सक्रिय होते हैं, जब कि दूसरों की वृद्धि ऑक्सीजन की न्यूनतम मात्रा की उपस्थिति में भी रुक जाती है। कुछ ऐसे भी है जो दोनों प्रकार की स्थितियों को सहन कर सकते हैं। इनको वैकल्पिक वात-निरपेक्ष (facultative anaerobes) कहते हैं। कार्बनिक पदार्थ का जीवाणुओं द्वारा विघटन ऑक्सीजन की उपस्थिति व अनुपस्थिति में भिन्न प्रकार से होता है। ऑक्सीजन की उपस्थिति में इसका क्षय होता है, जिसमें विभंग (break down) की क्रिया अंत में पूर्ण हो जाती है। कार्बन का कार्बन डाइऑक्साइड में, हाइड्रोजन का पानी में, फ़ॉस्फोरस और सल्फर का क्रमश: फॉस्फेट और सल्फेट में ऑक्सीजन हो जाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में विघटन की क्रिया सड़ाँध या पूतिक्रिया है, जिसका परिणाम कार्बनिक पदार्थ का अपूर्ण विभंग है। इस क्रिया में दुर्गंध निकलती है और विषैले पदार्थों की रचना होती है।

प्रकाश का प्रभाव

अंधकार जीवाणुओं के परिवर्धन में सहायक है। बहुत से जीवाणु, जो सक्रिय रूप से अंधकार में चर (mobile) होते हैं, प्रकाश में लाए जाने पर आलसी हो जाता हैं तथा सूर्य के प्रकाश में पतले स्तर में रखे गए जीवाणु तीव्रता से मरते हैं। इन परिस्थितियों में कुछ केवल 10-15 मिनट के लिये जीवित रहते हैं। इसी कारण सूर्य का प्रकाश रोगजनक जीवाणुओं का नाश करनेवाले शक्तिशाली कारकों में माना गया है। साधारणत: दृश्य वर्णक्रम (spectrum) जीवाणुओं पर थोड़ा ही विपरीत प्रभाव रखते हैं तथा प्रकाश के वर्णक्रम के पराबैंगनी (ultraviolet) छोर में यह घातक शक्ति निहित रहती है।

जीवाणुपोष पदार्थ की क्रिया

जीवाणुपोष पदार्थों में अम्ल या क्षार की मात्रा की जीवाणुओं की उन्नति पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। कई प्रकार के जीवाणु अच्छे प्रकार से उस पदार्थ में उग सकते हैं, जो न तो अम्लीय है और न क्षारीय। बहुत से जीवाणुओं की वृद्धि दुर्बल अम्लीय पदार्थ द्वारा और कुछ की अल्प क्षारीय पदार्थ द्वारा होती है।

अम्लीय पदार्थ में कभी कभी कुछ जीवाणुओं की वृद्धि द्वारा एक चिपचिपा पदार्थ बन जाता है। जीवाणुओं के जीवनेतिहास में इस अवस्था को श्लेषमावस्था (zoogloea) कहते हैं। यह जीवाणुपोष पदार्थ के तल पर एक झिल्ली या डूबे हुए पुँज के रूप में मिलता है। ऐसी वृद्धि विश्राम की अवस्था होती है, जिसमें तत्व मोटी और लसदार कोशिका भित्ति द्वारा चिपक जाते हैं। ऐसी स्थूल कोशिका भित्ति को सम्पुटिका (capsule) कहते हैं। अनुकूल परिस्थिति में श्लेष्मावस्था के तत्व पुन: सक्रिय हो जाते हैं, आधार द्रव्य से बाहर निकलते हैं तथा घेरे हुए पदार्थ में पहले जैसी वृद्धि एवं विभाजन के लिये वितरित हो जाते हैं।

जल एवं वायु में जीवाणु

इस संसार में जीवाणु आदिकाल में भी उपस्थित थे। आजकल ये तलैयों तथा खाइयों, प्रवाहित स्रोतों, नदियों तथा समुद्र में, कूड़े कर्कट तथा खाद के ढेरों में, भूमि में तथा पड़े हुए कार्बनिक पदार्थों में सर्वत्र पाए जाते हैं। पर्याप्त नमी की उपस्थिति तथा असाधारण ठंड न होने पर कोई द्रव (रक्त, पेशाब, दूध आदि), जिसमें कार्बनिक पदार्थ है या कोई ठोस खाद्य सामग्री, जैसे मांस, रोटी, आलू आदि हवा में थोड़े समय के लिये खुला छोड़ देने पर जीवाणुओं से भर जाता है। कुछ जीवाणु हवा द्वारा भूमि से उठाए जाने पर सूख जाते हैं औरकुछ पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से मर जाते हैं। शहरों की तुलना में गाँवों की वायु अधिक स्वच्छ रहती है और वनों की हवा में जीवाणुओं की उपस्थिति बहुत कम होती है। ऐसा जान पड़ता है कि वनों में वृक्षों की पत्तियाँ जीवाणु के लिये छलनी का कार्य करती हैं। जैसे जैसे हम समुद्र में समुद्र तट से दूर जाते हैं, समुद्र के वायुमंडल में जीवाणु कम होते जाते हैं। मनुष्य के अनेक संक्रामक रोग वायुवाहित हैं तथा इनका सबसे अधिक भय शहरों में रहनेवालो तथा ऐसे कारखानों में रहता है जो अधिकतर हवादार नहीं होते। सबसे कम भय नाविकों तथा पर्वतीय प्रदेशों में रहनेवालों को होता है। मनुष्य को तपेदिक, डिपथीरिया (Diptheria) तथा काली खाँसी (whooping cough) रोग जीवाणुओं द्वारा होते हैं।

दूध एवं दुग्धशाला के उत्पादनों में जीवाणु

जीवाणुओं के परिवर्धन के लिये दूध पूर्ण आहार है। बिना जीवाणु या सूक्ष्म जीवों के दूध की दशा नहीं बदलती और इनके अभाव में दूध अपनी मौलिक दशा में अनिश्चित समय तक रखा जा सकता है। दूध के अच्छे रहने की अवधि उसकी जीवाणुमात्रा पर निर्भर रहती है। ग्वालों ने आर्थिकदृष्टि से ऐसी विधियों को अपनाया है, जिससे दूध में जीवाणुओं की संख्या न्यूनतम रहे।

मक्खन बनाना

मक्खन बनाने के लिये क्रीम की तैयारी में अम्ल बनानेवाले जीवाणुओं का अधिक उपयोग किया जाता है। ताजा क्रीम से तैयार किया हुआ मक्खन शीघ्र ही खराब हो जाता है। मथे जाने से पहले क्रीम को खट्टा होने देते हैं। इस जीवाणु परिपाक में वसा की गोलिकाएँ इस प्रकार बदल जाती हैं कि जीवाणुओं द्वारा वसा का प्रोटीन-आवरण उपचारित हो जाता है और आवरण मुक्त वसा की गोलिकाएँ सहज में मिलकर मक्खन बनाती हैं। मथने के समय पहुँची हुई अम्लता ताजे क्रीम से बनाए हुए मक्खन का विनाश करनेवाले जीवाणुओं की नाश करती है। साधारण डेरी फार्मों में क्रीम को अनियंत्रित रीति में हवा से गिरे हुए किसी जीवाणु से परिपक्व होने के लिये छोड़ दिया जाता है परंतु आधुनिक डेरी फार्मों में क्रीम को परिपक्व करने की विधि वैज्ञानिक रूप से प्रबंधित होती है। ऐसे मिश्रित जीवाणुओं को चुना जाता है, जो तीव्रता से अम्लता की उच्च दशा और मक्खन के स्वाद को बढ़ाने की क्षमता रखते हैं। आवपित (inoculated) क्रीम का ताप स्थिर रखा जाता है, जिससे पथने की क्रिया के समय यह समान दशा में रहती है। इस प्रकार अवांच्छनीय गंध से मुक्त और कुछ दिनों रखने योग्य मक्खन मिलता है। ऐसा मक्खन दो तीन सप्ताह तक रखा जा सकता है। ऐसा करने पर भी कुछ दिन पश्चात्‌ गंध उत्पन्न हो जाती है। पूतिगंधिता (rancidity), बैसिलस ब्यूटिरिकस (Bacillus butyricus) तथा दूसरे जीवाणुओं द्वारा लैक्टिक अम्ल का ब्यूटिरिक अम्ल में परिवर्तन होने से उत्पन्न होती है। कुछ जीवाणु बरतन धोते समय जल से भी प्रवेश कर सकते हैं, जिससे मक्खन में कुवास, कड़वापन या अन्य दोष आ जाते हैं। इसी प्रकार दूध में भी कुछ जीवाणुओं द्वारा ऐसे ही दोष उत्पन्न होते हैं, जिससे वह दुर्गंधमय और रंगीन हो जाता है।

पनीर परिपाक

अनेक प्रकार के पनीर दूध पर रैनेट (rennet) का उपयोग करके बनाए जाते हैं। कड़े पनीर में जमे दूध को अधिक दबाव द्वारा निचोड़ा जाता है, पर मृदु पनीर के उत्पादन में जमे हुएदूध से केवल पानी निथार लिया जाता है अथवा इस पर बहुत कम दबाव डाला जाता है। इस प्रकार का पनीर इस कारण अधिक गीला होता है। यह स्थिति जीवाणुओं की वृद्धि के लिये अधिक अनुकूल होती है। मृदु पनीर कड़े पनीर की अपेक्षा शीघ्र परिपक्व होते हैं। पनीर का परिपक्व होना पूर्ण रूप से जीवाणु क्रिया नहीं है, परंतु महक और कण-आकार (texture) निस्संदेह जीवाणु, खमीर और फफूँद की वृद्धि के परिणाम हैं।

जीवाणु तथा भूमि-उर्वरता

भूमि में विशेष प्रकार की सूक्ष्म वनस्पतियाँ और जीवजंतु रहते हैं, जिनमें विभिन्न प्रदेशों और वर्ष के विभिन्न समयों में बहुत कम हेरफेर होता है। इनमें कई प्रकार के जीवाणुओं के समुदाय होते हैं और इन समुदायों में प्रत्येक समुदाय अपना विशिष्ट कार्य करता है। इन समुदायों के मिले हुए प्रयत्नों से पौधों और जीवों के कार्बनिक अवशेषों का और अकार्बनिक चट्टानों के कणों का पूर्ण विघटन होता है तथा पौधों के भोजन में कम आनेवाले साधारण पदार्थों का विस्तरण होता है। इस विघटन द्वारा ये भूमि की उर्वरता को बढ़ाते हैं।

भूमि में ऊपरी परत में काला पदार्थ होता है जिसे ह्यूमस (humus) कहते हैं। इसमें जंतुओं और पौधों के अवशेष, विघटन की सब अवस्थाओं में मिलते हैं। पौधे के सबसे सहज विघटित भागों का किण्वन खमीर, फफूँद तथा जीवाणु करते हैं। इनके हटाए जाने पर बचे हुए ह्यूमस में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में नाइट्रोजन रहता है। क्योकि किण्वन विधियाँ ऑक्सीकरण क्रियाएँ हैं, ये वातयुक्त भूमि और पृथ्वी की ऊपरी परत पर सबसे तीव्रता से होती हैं। जैसे जैसे गहराई में जाते हैं ह्यूमस नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती जाती है। सैलूलोज़ (Cellulose) का किण्वन, माड़ी (starch) के किण्वन की अपेक्षा धीमी गति से होता है। बहुत से वातनिरपेक्षी जीवाणु सैलूलोज को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं।

ऐमोनियाकरण

पौधों और जंतुओं के अवशेषों में नाइट्रोजन अधिकतर प्रोटीन के रूप में रहता है और इस रूप में पौधों के भोजन के लिये उपयोगी नहीं होता। बहुत से जीवाणु प्रोटीन अणु को आसानी से तोड़ते हैं। जीवाणु जैलेटीन का प्रोटीन पचाते हैं और इस कारण जीवाणु पोष पदार्थ (culture medium) का द्रवीकरण हो जाता है। ये ह्यूमस प्रोटीन को साधारण घुलनशील नाइट्रोजनीय यौगिकों, ऐमिनो अम्ल (Amino acid) में बदल देते हैं। बहुत से जीवाणु इससे भी आगे बढ़ते हैं तथा ऐमोनिया बनाते हैं। यूरिया जीवाणुओं का एक समुदाय जंतुओं द्वारा यूरिया के रूप में छोड़े गए नाइट्रोजन को ऐमोनियम कार्बोनेट में बदल देता है। ये जीवाणु हवा में इतने सामान्य हैं तथा इस क्रिया को इतनी तीव्रता से संपन्न करते हैं कि जंतुओं द्वारा छोड़े जाने के कुछ ही समय पश्चात्‌ पेशाब से ऐमोनिया की दुर्गंध निकलती है।

नाइट्रीकरण

यद्यपि पौधे ऐमोनिया का आत्मीकरण (assimilation) कर सकते हैं तथापि वे नाइट्रोजन को मुख्यत: नाइट्रेट के रूप में लेते हैं। यह क्रिया दो जीवाणुओं द्वारा दो चरणों में पूरी होती है। प्रथम अवस्था में नाइट्रोसोमोनास (Nitrosomonas) द्वारा ऐमोनिया का ऑक्सीकरण होता है, जिसमें केवल नाइट्राइट बनता है। दूसरे चरण में नाइट्रोबैक्टर (Nitrobacter) द्वारा नाइट्राइट का ऑक्सीकरण नाइट्रेट में होता है। इस प्रकार जंतुओं एवं पौधों के सड़े हुए अवशेषों का नाइट्रोजन नाइट्रेट के रूप में आ जाता है, जो पौधों के पनपने में उपयोगी होता है। फसल के उगाने पर भूमि का नाइट्रोजन पौधों द्वारा ले लिया जाता है और खेत में खाद और ऐमोनियम सल्फेट उर्वरक देकर किसान इस क्षति की पूर्ति करता है।

नाइट्रोजन अनुबंधन

जंगलों की भूमि में कोई खाद नहीं दी जाती तथा परती भूमि में भी नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती जाती है। एजोटेबैक्टर क्रूकोक्कम (Azotobacter chroococcum) और क्लोस्ट्रीडियम पैस्टोरियेनम (Clostridium pastorianum) जैसे कुछ जीव अन्य प्रकार के नाइट्रोजन के अभाव में भूमि के विलयन में विलीन हुए गैसीय नाइट्रोजन का उपयोग कर सकते हैं। वे वायु से भी नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं और नाइट्रोजन को अपने शरीर में उस समय तक संचित करते रहते हैं, जब तक प्रोटोजोआ (protozoa) द्वारा उनका अवशोषण नहीं हो जाता। प्रोटोजोआ की मृत्यु के बाद यह नाइट्रोजन पौधों के आहार में काम आ जाता है।

सहजीवी जीवों (symbioticorganisms) द्वारा भी नाइट्रोजन अनुबंधन हो जाता है। शलाकावत्‌ जीवाणु बैक्टीरियम रैडिसीकोला (Bacterium radicicola) खेती करने योग्य भूमि में रहते हैं। ये मटर जाति लेग्यूमीनोसी (Leguminosae) के पौधों के मूल रोम में घुसकर जड़ के ऊतक (tissue) में प्रवेश करते हैं। इसके परिणाम स्वरूप जड़ के ऊतक में अधि विस्तृति (hypertrophied) हो जाती है जिससे गुटिका (nodules) बन जाती हैं। पोषक पौधे से भोजन प्राप्त करते हुए, वे जीवाणु गुटिका की कोशिकाओं में विभाजित होते हैं। ये गुटिकाएँ वायु का नाइट्रोजन सोख कर उसे जीवाणुओं की कोशिकाओं में जमा करती हैं और फिर यह नाइट्रोजन पोषक पौधे को दे दी जाती है। एक दूसरी प्रकार का जीवाणु स्यूडोमोनस रूबिएसिएरम (Pseudomonas rubiacearum) कुछ पौधों की पत्तियों में रध्रीं द्वार (stomatal openings) से प्रवेश करता है और पत्तियों की सतह पर ग्रंथियों में स्थापित हो जाता है। यह भी नाइट्रोजन अनुबंधन में समर्थ है।

गंधक जीवाणु

अनेक गंधक जीवाणु भूमि में रहते हैं। सड़ने की क्रिया में प्रोटीन में व्याप्त गंधक का अधिक भाग हाइड्रोजन सल्फाइड में बदल जाता है और इसकी उपस्थिति में गंधक जीवाणु बढ़ते हैं। ये गंधक के अणु का सल्फ्यूरिक अम्ल में ऑक्सीकरण करते हैं और साथ ही गंधक का कुछ अंश अपने शरीर में संचय भी करते हैं। भूमि में इस प्रकार बनाया गया सल्फ्यूरिक अम्ल कैल्सियम फॉस्फेट को विलेय बनाता है। बेजिआटोआ (Beggiatoa) इसका एक उदाहरण है। दूसरी ओर स्पाइरिलम डीसल्फ्यूरीकैंस (Spirillum desulphuricans) नामक निर्वात जीवाणु सल्फेट पर आक्रमण कर उसका अवकरण करता है और इस प्रकार यह गंधक जीवाणुओं के विपरीत क्रियाशील होते हैं।

लोह जीवाणु

जीवाणुओं का यह समुदाय सब प्रकार की भूमि में मिलता है। विशेषत: ये लोहे की चट्टानों के संचय को घेरे रहनेवाले प्रदेशों में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इन जीवाणुओं में एक मोटा आवरण होता है, जिसमें फेरिक हाइड्रॉक्साइड जमा रहता है। ये डोरे के आकार के होते हैं। कुछ जातियाँ चपटी होती हैं, जो सूक्ष्मदर्शी में मरोड़े हुए फीते के समान दिखाई पड़ती है। इनकी उपयोगिता संदिग्ध है। बड़े नगर के जलप्रबंध में ये कठिनाई उत्पन्न करते हैं, क्योंकि मर जाने पर वे ऑक्साइड छोड़ देते हैं, जिसके एकत्र होने पर पानी के नल रूद्ध हो जाते हैं।

मल निर्यात

मल में मानव के अपशिष्ट पदार्थों के अतिरिक्त कारखानों के अपशिष्ट पदार्थ तथा नगर में काम आनेवाला संपूर्ण जल भी सम्मिलित है। उष्ण कटिबंधीय देशों में जीवाणुओं की क्रिया ऊँचे ताप द्वारा तीव्र हो जाती है। पर शीतोष्णु जलवायु में यह विभिन्न प्रकार की अभियांत्रिक विधियों द्वारा प्रेरित की जाती है। इन सब विधियों में भूमि में पाए जानेवाले जीवाणुओं का उपयोग होता है। अधिकतर नगरों में तलछट कुंड (sedimentation tank), पुतिगलन कुंड (septic tank) और फिल्टर स्तर (filter bed) काम में लाए जाते हैं। दोनों प्रकार से कुंडों में जीवाणुओं की क्रिया अधिकांश वातनिरपेक्ष होती हैं, जिससे मल पदार्थ का विघटन बड़ी तीव्रता से होता है, पर उसका विनाश आंशिक होता है। इससे सरल, घुलनशील नाइट्रोजनी पदार्थ बनते हैं। इसी में पूर्तिक्रिया के सामय आने वाली बदबू निकलती है। इस पदार्थ को कोयलों पर फैलाते हैं, जहाँ इसको वायु मिलती है तथा ऐमोनियाकरण और नाइट्रीकरण की क्रियाएँ बड़ी तीव्रता से प्रारंभ होने लगती हैं।

उद्योग में जीवाणुविज्ञान

प्रारंभ में जीवाणुविज्ञान के औद्योगिक रूप का प्रभाव काम करनेवालों पर अधिक था, किंतु पैस्टर तथा अन्य लोगों का ध्यान किण्वन से उत्पन्न संड़ाँध तथा संक्रामक रोगों की ओर अधिक आकर्षित होने से यह प्रभाव कम हुआ। आजकल जीवाणुविज्ञान का व्यापरिक रूप पुन: ध्यान आकर्षित कर रहा है, जिसमें जीवाणुओं के उत्प्रेरक (catalytic) गुणों का उपयोग होता है। औद्योगिक कच्चे पदार्थों पर इन जीवाणुओं के नाशक प्रभाव को समाप्त करने के लिये भी प्रयत्न किए गए हैं।

उद्योग में जीवाणु क्रियाओं का कई प्रकार से उपयोग होता है। पावरोटी बनाने में किण्वन का उचित नियमन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। पाव रोटी बनाने में उपयुक्त प्रकार के ख़मीरों को डालकर तथा गूँधे हुए आटे के फूलने के समय को कम करके आटे में विभिन्न प्रकार की अणुवनस्पतियों (microflora) की क्रिया को जान बूझ कर रोकते हैं। जई की रोटी बनाने में अब भी साधारण अणुवनस्पति सक्रिय रहती है।

जीवाणु किण्वन द्वारा पौधों के ऊतकों के पैक्टिनीय (pectinous) मध्य लमेला (lamella) को विघटित किया जाता है। इस रीति से पौधों को जीवाणु द्वारा गलाकर सन या पटुआ के रेशे प्राप्त किए जाते हैं।

माड़ी और शक्कर को विघटित करनेवाले जीवाणुओं के प्रकिण्व (enzymes) का उपयोग अनेक विधियों द्वारा अन्य महत्वपूर्ण औद्योगिक पदार्थों की उत्पत्ति में भी हो सकता है। लैक्टिक अम्ल-जीवाणु शक्कर के घोल का किण्वन कर लैक्टिक अम्ल बनाते हैं। इसी प्रकार ब्यूटिरिक अम्ल का भी व्यापारिक निर्माण होता है। कुछ जीवाणु जो ब्यूटिरिक अम्ल जीवाणुओं से संबंधित हैं, माड़ी से किण्वन की एक रीति द्वारा ब्यूटिल एलकोहल और ऐसीटोन बनाने में काम आते हैं। यह भी देखा गया है कि कुछ पेंटोज़ (pentoses) शर्कराएँ जो ख़मीर (yeast) से किण्वित नहीं हो पातीं, जीवाणुओं द्वारा एथिल ऐलकोहल और ऐसीटोन के मिश्रण में बदल जाती हैं। ऐसी शर्कराएँ कृषि संबंधी उद्योगों में काम आनेवाले पौधों के उत्सर्जित पदार्थों में पाई जाती है। एक प्रकिण्वक प्रक्रिया द्वारा इन शक्करों से पावर एलकोहल (power alcohol) बनाया जाता है।

नाइट्रोजनी यौगिकों का जीवाणुओं द्वारा विघटन प्राकृतिक रेशम में चिपकनेवाले पदार्थ को हटाने के काम में आ सकता है तथा इसके द्वारा नाइट्रोजनीय यौगिकों का संश्लेषण सस्ते में हो सकता है।

उद्योग-धंधों में जीवाणुओं का महत्व चाहे जितना हो, फिर भी इनकी क्रियाओं पर नियंत्रण आवश्यक है। शक्कर के उद्योग में ताजा रस जीवाणुओं की क्रिया से प्रभावित हो जाता है और शक्कर का मणिभीकरण (crystallisation) कठिन हो जाता है। जीवाणुओं द्वारा पदार्थों की क्षति दुग्धशाला तथा अन्य उद्योगों में प्राय: होती है।

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